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________________ २३९ हरजसराय - हरदास शम्मादिक कल्याण पुण, वण्णउ भक्ति विशेष। ग्रम्भ जम्म तप णाण पुण, महा अमिय कल्लाण, चउविय शक्का आपकिय, मणवक्काय महाण। (२) मंगलदायक वंदि के मंगल पंच प्रकार, वर मंगल मुझ दीजिए, मंगल वरणन सार। मो मति अति हीना, नही प्रवीना, जिन गुण महा महंत, अति भक्ति भाव ते हिये चाव ते, नहि यश हेत कहत। सबके मानन को गुण जानन को, मो मन सदा रहंत, जिन धर्म प्रभावन भव पावन, जण हरिचंद चहंत। उक्त दोनों उदाहरणों से यह साफ प्रकट होता है कि प्रथम उद्धरण की भाषा शैली में सप्रयास अपभ्रंशाभास का प्रयत्न किया गया है जबकि द्वितीय उद्धरण की भाषा परंपरित (मरुगुर्जर) हिन्दी है। इसका रचनाकाल इन पंक्तियों में है तीन-तीन वसुचंद ओ सवंत्सर के अंक, ज्येष्ठ शुक्ल सप्तमि सुभग, पूरन पढ़ौ निसंक।"४२९ अर्थात् यह रचना सं० १८३३ ज्येष्ठ शुक्ल सप्तमी को पूर्ण हुई थी। एक जैन कवि हरिचंद १६-१७ वीं शताब्दि में हो गये है। जिन्होंने पद्धरी छंद में 'अनस्तमित व्रत संधि' नामक ग्रंथ प्राकृताभास भाषा शैली में लिखा था, यथा आइ जिणिंदु रिसह पणवेप्पिणु, चउवीसह कुसुमजंलि देप्पिणु वड्डमाण जिण पणविवि भावि, कल मलु कलुसवि वछि उपाव।४३० इस छंद की भाषा १९ वीं शती के कवि हरिचंद कृत 'पंचकल्याणक' की प्राकृताभास भाषा शैली से पर्याप्त मिलती जुलती है। इसलिए यह भी संभव है कि वह रचना (पंचकल्याणक सं० १८३३) १६ वीं-१७ वी (वि०) के हरिचंद कवि की हो। यह विचारणीय प्रश्न है जिस पर जैन साहित्य के शोधाथिर्यों को ध्यान देना चाहिये। हरदास आप संभवत: जैनेतर कवि हैं। इन्होंने सं० १८०१ में 'भंगीपुराण' की रचना की। यह ३३४ कड़ी की विस्तृत रचना है। इसका प्रारंभ इस प्रकार हैआदि- पहिलो सरस मति प्रणमां, प्रणमुं ते सिर अक्षर परमां, भाजण भरम गुणेवी भ्रमां, नमो ईस उभया दसन मां। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002093
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages326
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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