________________
वान - विजयकीर्ति
२०५
हुए थे। इसके संपादक मुनिविजय का मत है कि इनका आचार्य पद पर बैठना सं० १७१८ के बजाय सं० १७८८ होना ज्यादा संभव और समीचीन लगता है । विजयप्रभ से पूर्व की गुरु परंपरा में हेमविमल, आणंदविमल, विजयदान, हीरविजय, विजयसेन और विजयदेव का सादर वंदन किया गया है। वे श्रावक थे, यह तथ्य इन पंक्तियों से उजागर होता है
निर्मल करणी निर्मल वाणी देखी ने सुख पाया रे; श्रावक दास तुमारो सामी, तुम चरणों चित लाया रे ।
कलश की अंतिम दो पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
नाम लीजै सेव कीजै तन मन कीजै वारीयो; विवुधविमल सूरि सेवक कहै, सिव रमणी करै उवारीयां । ३६२
विजयकीर्ति
आप दि० संप्रदाय के मूल संघ नागौर की गादी के भट्टारक भुवनभूषण के पट्टधर थे। इन्होंने श्रेणिक चरित्र भाषा और 'महादंडक' नामक सिद्धांत ग्रंथ सं० १८२९ में अजमेर में लिखा। संबंधित पंक्तियाँ उद्धृत कर रहा हूँ
रचनाकार
विजयकीर्ति मुनि रच्यो सुग्रंथ भव्य जीव हितकार सुपंथ ।
रचना स्थान - गढ़ अजमेर सुथान, श्रावक सुष लीला करै; जैन धर्म बहुमान, देव शास्त्र गुरु भक्ति मन । ३६३ रचनाकाल - संवत जानि प्रवीन अठारो सै गुणतीस लखि; महादण्डक शुभ दीन, ज्येष्ठ चौथि गुरु पुष्य शुक्ल । ३
६४
दूसरी रचना ' श्रेणिक चरित्र भाषा' (सं० १८२६, अजमेर) है। संबंधित पंक्तियाँ निम्नांकित हैं
गढ़ अजमेर सकल सिरदार, पट नागौर महा अधिकार; मूलसंघ मुनि लिखिय बणाय, भट्टारक पद नो भव भाय ।
इस रचना में मूलसंघ के रत्नकीर्ति, महेन्द्रकीर्ति, अनंतकीर्ति और विजयकीर्ति आदि गुरुजनों की वंदना की गई है यथा
रचनाकाल — विजयकीर्ति भट्टारक जानि, इह भाषा कीनी परमाण,
संवत अठारा सय सतबीस, फागुण सुदी साते सुजगीस। बुधवार इह पूरण भई, स्वाति नक्षत्र वृद्धज पासु थइ ।
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org