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हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास यह कृति दोशी नेमचंद सवजी ने सं० १९८६ में प्रकाशित किया है। आपकी एक अन्य रचना 'जिनलाभ सूरि गीतानि' शीर्षक के अन्तर्गत ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में संकलित है। उसमें माणिक, मुनि देवचन्द्र और वसतों की गीत-रचनायें संकलित है। यह तीसरी रचना है। इसकी अंतिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
श्री जिनलाभ सुरिन्द्र प्रतपो जिम सूरिज चंद्र हे,
चित्त धरि अधिक जगीस, इम वसतो दे आशीस हो।३६१ इस क्रम में चौथी रचना क्षमाकल्याण की है।
वान
ज्ञानविमल सूरि संतानीय विवुधविमल सूरि के श्रावक शिष्य थे। इन्होंने 'विवुधविमल सूरि रास' (१३ ढाल, सं० १८२० श्रावण शुक्ल १३, बुरहानपुर) लिखा है, इसका आदि इस प्रकार है
परणमुं पास जिणंद ना, चरण कमल सुखदाय; वीर शासन मुनि गायसुं, वंछीत पूरो माय। तिण कारण तुं सरसती दीजे वचन विलास, लखमीविमल गुरु गायसुं, पूरे मन नी आस।
x x x x x x अंत- विवुध विमल सूरि गाइआ, गाया रंग रसाल,
वीर शासन मुनि गावसे, तस द्वार मंगलमाला आपकी गुरुपरंपरा इस प्रकार है
विजयप्रभ के पट्टधर ज्ञानविमल > सौभाग्यसागर > सुमतिसागर > विबुध विमल सूरि के शिष्य थे श्रावक बान। रचनाकाल निम्न पंक्तियों में बताया गया है
संवत अठार से बीसना वरसे, महिमा विमल सूरि आया रे,
श्रावण सुद तेरस ने दीने, बुरहानपुर नगर मां गाया रे। इस रास के अनुसार रास के नायक विवुधविमल सीतपुर ग्राम के रइआं बाई और गोकुल मेहता के पुत्र थे। जन्म नाम था लक्ष्मीचंद। इन्हें कीरत विमल सूरि ने दीक्षा दी और लक्ष्मीविमल दीक्षा नाम रखा गया। सं० १७१८ में जब ये आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए तब नाम बदल कर विवुधविमल पड़ा। ये सं० १८१४ में औरंगाबाद में स्वर्गवासी
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