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हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास प्रथम जपं अरिहंत, अंग द्वादश जु भावधर। गणधर गुरु संजुक्त, नमो प्रति गणधर निशतर। x x x x x बंध्या सुतहि जनै नहीं, ना दुष थोरो जाणि, शठ सुत नैना देषीयै, आ दुष नहीं समांण। सब निज थानिक सुष लहैं, सब सुष समरै राम, सहसकृत भाषा कियौ, श्रावक निर्मल राम
इन पंक्तियों से यह विदित होता है कि ये जैन श्रावक थे। अंत- पंचारव्यान कहे प्रगट, जो जापौ नर कोय,
राजनीति मै निपुण है, पृथ्वीपति सो तोय।२२८ निहालचंद
ये पार्श्वचन्द्र गच्छ साधु हर्षचन्द्र के शिष्य थे। रचना- ब्रह्मबावनी (सं० १८०१ कार्तिक शुक्ल २, मकसुदाबाद), आदि-आदि ओंकार आप परमेसर परमजोति,
अगम अगोचर अलख रूप गायो है। द्रव्यता में एक पै अनेक भेद परजै मै, जाको जस वास मत्तबहून मै छायो है। त्रिगुन त्रिकाल भेव तीनों लोक तीन देव,अष्ट सिद्धि नवो निधिदायक कहायो है।
अक्षर के रूप में स्वरूप भुअलोक हूं कौ, असो ओंकार हर्षचंद मुनि ध्यायो है। रचनाकालसंवत अठारै सै अधिक एक काती मास पख उजियारै तिथि द्वितीया सुहावनी; पुर में प्रसिद्ध मकसुदाबाद बंग देस जहाँ जैन धर्म दया पतित कौ पावनी। पासचंद गच्छ स्वच्छ वाचक हरषचंद, कीरतें प्रसिद्ध जाकी साधु मनभावनी, ताके चरणारविंद पुण्य ते निहालचंद, कीन्ही निजमति ते पुनीत ब्रह्मबावनी।
कवि ने पाठकों से विनती करते हुए एक छंद लिखा हैहम पै दयाल कै के सज्जन विशालचित्त, मेरी एक विनती प्रमान करि लीजियो। मेरी मति हीनता ते कीन्हों बाल ख्याल इह, अपनी सुबुद्धि ते सुधार तुम दीजियो। पौन के स्वभाव तें प्रसिद्ध कीज्यौ ठौर-ठौर, पन्नग स्वभाव ओक चित्त में सुणीजियो।२२९
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