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दुर्गादास - देवरत्न
देवरत्न
लघु० तपागच्छीय लक्ष्मीसागर सूरि > चंद्ररत्न > अभयभूषण > लावण्यभूषण > हर्ष कनक > हर्ष लावण्य > विजयभूषण > विवेक रत्न श्री रत्न > जयरत्न > राजरत्न > हेमरत्न विजय रत्न के शिष्य थे। यह विस्तृत गुरु परम्परा कवि ने अपनी रचना 'गजसिंह कुमार रास' (सं० १८१५ कार्तिक शुक्ल, विद्युतपुर (बीजापुर) में दी है। यह विस्तृत रचना चार खण्डों ५१ ढालों में १५७२ कडी की है। इसका प्रारम्भ इन पंक्तियों से हुआ है
प्रथम इष्टपदेष्ट जे परमरूप परमेष्ट;
अरूणादधिक जे ज्योतिमय, सेविजस उगरेष्ट। हरिवांगी निरगंगी प्रभू, पसरित कीर्ति तरंग, प्रणितोहं तस नम्र सिर, पाद पद्म चितरंग। दान थी सुखलछी हुई, भाव थी मुक्ति प्रसंग; तप थी तिम ज निर्वाण पद, पिण जो रही अभंग। शील थी भय टलि सवि महा, युद्धादिक जे अष्ट, शील खड्ग जेहनी करी तेह थी कष्ट पनष्ट ।
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X इह भव पर भव शील थी लही सौख्य अपार, राजा ऋद्धि समृद्धि जिम, जगि गजसिंह कुमार ।
रचना और रचना संबंधी अन्य विवरण इन पंक्तियों में है, यथा
संवत तिथि अष्ट भू अब्द जेह, नभ वसु नृप शाक अह है; मास बहुल (कार्तिक) जोष्णि सित पक्ष वाह्मि सुत धरत प्रतक्ष है।
ते दिवसे पूर्यो उल्लास, सहुने लील विलास हे,
ढाल अकावन उलासें चार, दूहा त्रिशत इग्यार है। गाथा तिथि सत बहुतर थोक, सार्धं विंशति शत श्लोक है; विद्युतपुर वास्तव्य से कीधो, सहिब थी यश लीधो है ।
इसकी अंतिम पंक्तियाँ आगे उद्धत की जा रही है
इम जाणि जे ब्रह्मवर्त्त आराधे, अति उज्वल पद साधे हे देव कहें होये मंगलमाला, लही सुखलछि रसाला हे । २००
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