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हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास जै० गु० क० के प्रथम संस्करण में गुरु का नाम विनयरत्न छपा था किन्तु उद्धत अंश में स्पष्ट ही नाम विजयरत्न है इसलिए नवीन संस्करण के संपादक ने गुरु का नाम विजयरत्न ही माना है। देवविजय
आप तपागच्छीय विनीतविजय के शिष्य थे। आपकी रचना है 'अष्टप्रकारी पूजा' (सं० १८८१, आसो, शुक्ल ३, शुक्रवार, पादरा) इसका आदि
अजर अमर अकलंक जे, अगम्य रूप अनंत,
अलख अगोचर नित्य नमुं, जे परम प्रभुतावंत। इसमें आठ प्रकार की पूजा विधि का वर्णन किया गया है, यथा
प्रथम नवण पूजा करो, बीजा चंदन सार,
बीजो कुसुम वली धूपनी, पंचमी दीप मनोहार।
यह रचना कवि ने नान्हा सुत जीवण के आग्रह पर रच कर अपने गुरु विनीतविजय की सेवा में समर्पित किया
सकल पंडित सिर सेहरो ओ, श्री विनीतविजय गुरु राय,
तास चरण सेवा थकी ओ, देवना वंछित थाय। रचनाकाल- शशि नयण गज विधु वरु अ, नाम संवछर जाण,
तृतीय सित आसो तणी अ, सुक्करवार प्रमाण।" पादरा नगर विराजता ओ, श्री संभव सुखकार,
तास पसाय थी ओ रचीओ पूजा पूजाअष्टप्रकार।
आपकी दूसरी रचना ‘अतिचार मोटा (सं० १८२२?) संदेहास्पद है। इसमें श्रावकों के लिए प्रतिक्रमण विधि का वर्णन किया गया है। यह रचना मरुगुर्जर गद्य में है। इसके अंत की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
इति जिनवर वृंद शुद्ध भावेन कीर्ति विमल मिह जगत्यां पूज्यंत्यष्टधा ये। इसके आधार पर जै० गु० क० के प्रथम संस्करण में इस रचना को भी देसाई ने कीर्ति विमल कृत बताया था किन्तु नवीन संस्करण के संपादक जयंत कोठारी का स्पष्ट विचार है कि शब्द 'कीर्ति विमल, व्यक्ति वाचक संज्ञा नहीं अपितु जिनवर वृंद की विशेषता का सूचक है। इसलिए नवीन संस्करण में इसे स्पष्टतया उन्होंने देवविजय की रचना बताया है।२०१
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