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________________ १२२ हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास जै० गु० क० के प्रथम संस्करण में गुरु का नाम विनयरत्न छपा था किन्तु उद्धत अंश में स्पष्ट ही नाम विजयरत्न है इसलिए नवीन संस्करण के संपादक ने गुरु का नाम विजयरत्न ही माना है। देवविजय आप तपागच्छीय विनीतविजय के शिष्य थे। आपकी रचना है 'अष्टप्रकारी पूजा' (सं० १८८१, आसो, शुक्ल ३, शुक्रवार, पादरा) इसका आदि अजर अमर अकलंक जे, अगम्य रूप अनंत, अलख अगोचर नित्य नमुं, जे परम प्रभुतावंत। इसमें आठ प्रकार की पूजा विधि का वर्णन किया गया है, यथा प्रथम नवण पूजा करो, बीजा चंदन सार, बीजो कुसुम वली धूपनी, पंचमी दीप मनोहार। यह रचना कवि ने नान्हा सुत जीवण के आग्रह पर रच कर अपने गुरु विनीतविजय की सेवा में समर्पित किया सकल पंडित सिर सेहरो ओ, श्री विनीतविजय गुरु राय, तास चरण सेवा थकी ओ, देवना वंछित थाय। रचनाकाल- शशि नयण गज विधु वरु अ, नाम संवछर जाण, तृतीय सित आसो तणी अ, सुक्करवार प्रमाण।" पादरा नगर विराजता ओ, श्री संभव सुखकार, तास पसाय थी ओ रचीओ पूजा पूजाअष्टप्रकार। आपकी दूसरी रचना ‘अतिचार मोटा (सं० १८२२?) संदेहास्पद है। इसमें श्रावकों के लिए प्रतिक्रमण विधि का वर्णन किया गया है। यह रचना मरुगुर्जर गद्य में है। इसके अंत की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं इति जिनवर वृंद शुद्ध भावेन कीर्ति विमल मिह जगत्यां पूज्यंत्यष्टधा ये। इसके आधार पर जै० गु० क० के प्रथम संस्करण में इस रचना को भी देसाई ने कीर्ति विमल कृत बताया था किन्तु नवीन संस्करण के संपादक जयंत कोठारी का स्पष्ट विचार है कि शब्द 'कीर्ति विमल, व्यक्ति वाचक संज्ञा नहीं अपितु जिनवर वृंद की विशेषता का सूचक है। इसलिए नवीन संस्करण में इसे स्पष्टतया उन्होंने देवविजय की रचना बताया है।२०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002093
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages326
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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