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हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
समुद्रवद्ध चित्र कवित्त (लगभग सं० १८५३) माधवसिंह का पुत्र प्रतापसिंह जयपुर का राजा हुआ तो उसे भी ज्ञानसार ने आशीर्वाद दिया और गुणवर्णन किया। ‘कामोद्दीपन’ ग्रंथ (१७७ कड़ी सं० १८५९ वैशाख शुक्ल ३, जयपुर) उसे ही संबोधित करके लिखा गया है। एक उदाहरण
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मदन उद्दीपन ग्रंथ यह रच्यो रुच्यौ श्रीकार,
जग करता करतार है यह कवि वचन विलास ।
प्रायः लोगों की यह धारणा है कि जैन कवि सरस श्रृंगारी रचनायें नही करते, श्रीसार का कामोद्दीपन ग्रंथ इस आरोप को निराधार सिद्ध करता है | संबोध अष्टोत्तरी (१०८ सोरठा, सं० १८५८ ज्येष्ठ शुक्ल ३ )
आदि
अरिहंत सिद्ध अनंत आचारिज उबझाय वलि, साधु सकल समरंत, नित का मंगल नारणा ।
'४७ बोल गर्भित २४ जिनं स्तव अथवा चौबीसी'मंजूषा में प्रकाशित है।
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रचनाकाल — संवत् प्रवचनमाय मुणिवय सिद्ध (सिद्धि) सिवपय सूं गुणी, जिन वीर मोक्ष कल्याण दिवसै ज्ञानसार थुय थुणी ।
दंडक भाषा गर्भित स्त० (२६ कड़ी सं० १८६१ पोष शुक्ल ७, सोम जयपुर) का। आदि- ऋषभादिक चौबीस नमि तेहनो सूत्रविचार दंडक रचनायै तवुं, संखेपै निरधार ।
यह ११५१ स्तवन
यह रत्नसमुच्चय पृ० २०३-०६ और अभयरत्नसार में प्रकाशित है। जीवविचार भाषा गर्भित स्त० (२९ कड़ी सं० १८६१, माघ कृष्ण ४)। रचनाकाल — संवत् ससी रस वारण ससिहर धर निरधार, माघ चोथ दिन कीनो जैपुर नगर मझार ।
यह रत्नसमुच्चय पृ० २०६-०९ और अभयरत्नसार में प्रकाशित है। नवतत्त्वभाषा गर्भित स्त० (३३ कड़ी सं० १८६१ माघ बद ५, मेरुतिथि, सोमवार) का प्रारम्भ -
नमस्कार अरिहंत ने सिद्ध सूरि उबझाय;
साधु सकल प्रणमी करी, प्रणमी श्री गुरुपाय ।
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