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________________ ज्ञानसागर १०१ यह भी रत्न समुच्चय पृ० १९९ और अभयरत्नसार में प्रकाशित है। हेमदंडक (१०८ कड़ी सं० १८६२ भाग वद १४ जयपुर) का आदि जे ध्रुव अलख अमूरती अनाहारी चिद्रूप; अज अविन्यासी अमरपद, पूर्णानंद सरुप। आपने कई छत्तीसियाँ लिखी है जैसे भाव छत्तीसी (३६ दोहे, सं० १८६५ कार्तिक शुक्ल १, किसनगढ़), कहा जाता है कि जैसलमेर के नंदलाल की पत्नी मोतू उनके पास दीक्षा लेने गई पर उसे अपात्र समझ कर मना कर दिया। उसी को समझाने के लिए आपने 'चारित्र छत्तीसी' लिखी थी। बहुत्तरी अथवा पद संग्रह सं० १८६६ के पूर्व की रचना है। सिद्धाचल जिन स्त० (शजय स्तव) २१ कड़ी १८६९ फाल्गुन कृष्ण १४ का रचनाकाल निध रस वारण ससि फागण वदि चवदसै; सिद्ध गिरि फरस्यै मन वच तन उल्लसै। जिनमत धारक व्यवस्था वर्णन स्त० १२ कड़ी की छोटी रचना है। नवपद पूजा (सं० १८७१ भाद्र वदी १३ बीकानेर) का रचनाकाल संवत् निश्चयनय भयतिम वलि प्रवचनमाय, परम सिद्ध पद वाम गतै, ओ अंक गिणाय। भाद्रवा वदि तेरस-तेरस सं नव पद लीन बीकानेर ज्ञानसार मुनि तवना कीन। चौबीसी (सं० १८७५ भाग० शु० १५ बीकानेर) अंत- गोडेया जी तै मुहि सुधि बुधि दीधी, तुम्ह सहाये बुद्धि पंगुर थी, जिनगुण नग गति कीधी। अक्षर घटना स्वपद लाटनी भाव वेध रस वीधी। अंध बधिर आसय नहि समझू सी श्रुत उधी सीधी। कालावाला सहूथीं करनँ, भक्ति वृत्ति रस पीधी। सुमति समय तिम प्रवचन माता, सिद्ध बाम गति लीधी। वर खरतरगच्छ रत्नराज गणि ज्ञानसार गुणवेधी। विक्रमपुर मृगसर सुदी पूनम चौवीसुं स्तुति कीधी। मालापिंगला (१५२ कड़ी, सं० १८७६ फाल्गुन शुक्ल ९) के प्रारम्भ में कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002093
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages326
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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