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किशनदास कीसन अथवा कृष्णदास मुनि
साधवि सूविज्ञान मा की जाई श्री रतन्नबाई, तजी देह तापर रची हे विगत्तावनि मत किन मनि लीनी ततही पे रुचि दीनी,
वाचक किसन कीनि उपदेश बावनी।' इन पंक्तियों से स्पष्ट प्रकट होता है कि यह रचना किशन ने अपनी बहन रतनबाई के शरीरत्यागोपरांत लिखी थी।
उपदेश बावनी के सम्पादक डॉ० अम्बादास नागर ने इन्हें संघराज का शिष्य इस पंक्ति के आधार पर स्वीकार किया है
क्षिति संघराज लोंकागच्छ शिरताज आज,
तिनकी कृपा ते कविताई पाई पावनी ।। किशन बावनी के सम्पादक गोविंद गिल्लाभाई के अनुसार कच्छ के राजकवि जीवराम अजरामर गौर ने इन्हें उत्तर भारत का गौड़ ब्राह्मण कहा है और बताया है कि पति के निधनोपरांत किशनदास की माता अपने पुत्र-पुत्री को लेकर संघराज के आश्रय में अहमदाबाद चली आई थी। संघराज जी ने ही किशन को शिक्षित किया और काव्य रचना का अभ्यास कराया, लेकिन गोविंद गिल्लाभाई स्वयं इससे सहमत नहीं हैं और वे इन्हें गुजरात का मूल निवासी मानते हैं। किशनदास को केवल भाषा के आधार पर गुजराती या राजस्थानी नहीं सिद्ध किया जाना चाहिए क्योंकि प्रायः समस्त जैन साहित्य ही पुरानी हिन्दी और मरुगुर्जर में है।
उपदेशबावनी या किशनबावनी गुजरात में बड़ी लोकप्रिय रही है। इसमें ६२ क वित्त हैं, यह शांतरस की सुंदर रचना है। इसके प्रारम्भिक ५ कवित्त “ओं नमः सिद्धं' के प्रत्येक वर्ण से प्रारम्भ हुए हैं, तत्पश्चात् नागरी वर्णमाला के अ से आरम्भ होकर अन्त तक के प्रत्येक अक्षर पर ५७ छन्द हैं। प्रत्येक कवित्त सरस एवं प्रभावोत्पादक हैं। जीवन की क्षणभंगरता और आयु के पलपल छीजने का मार्मिक वर्णन निम्नांकित सवैये में द्रष्टव्य है
१. श्री मोहनलाल दलीचंद देसाई - जैन गुर्जर कवियो भाग २ १० ४७२, .
भाग ३ पृ० १४१६ (प्रथम संस्करण) और भाग ५ प० २६६ (न०सं०) २. सम्पादक डा० अम्बादास नागर—गुजरात के हिन्दी गौरवग्रन्थ पृ० १८२
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