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मरुगुर्जर हिनी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास श्री गौतम गणधर नमी, पामी सुगुरु पसाउ
अष्टादस सगपण तणी कथा कहुंधरि भाउ । गुरु परंपरान्तर्गत इन्होंने स्वयं को नागोरी बड़तपगच्छ के पार्श्वचंद्र की परम्परा में धर्मसिंह का शिष्य बताया है। रचनाकाल इस प्रकार बताया है
द्वीप ससी संवत सही रे, बरस युगल रस जाणि,
पर आपण हित कारणे रे, ओ कही कथा बषाणि, रे प्राणी। चूंकि इनकी गुरु परंपरा भिन्न है अतः ये रोहिणी रास के कर्ता कर्मसिंह से भिन्न लगते हैं। रचनाएँ भी भिन्न हैं। इसमें कवि ने मोह की महिमा का वर्णन करके उससे बचने का उपदेश दिया है
तसू विनयी मूनि कर्मसिंह रे, पाटण नयर मझार, चरित्र रच्यो मे मोह नो रे, सगपण मिस अवधार रे ।'
कहान जो गणि आप लोकागच्छीय तेजसिंह के शिष्य थे। आपने ‘गज सुकुमार संज्झाय (९ कड़ी सं० १७५३, पौष), अर्जुनमाली संज्झाय (१६ कड़ी सं० १७४७ राणपुर), शांति स्तव (७ कड़ी सं० १७५६ सूरत चौमासा), सुदर्शन सेठ संज्झाय (१८ कड़ी सं० १७५६ सूरत) और सामायिक दोष संज्झाय (१६ कड़ी सं० १७५८ सूरत ) नामक रचनाएँ की हैं। इनकी दो रचनायें-गज सुकुमार संज्झाय और सामायिक दोष संज्झाय प्रकाशित है। प्रथम का प्रकाशन जैन स्वाध्याय मंगलमाला भाग १ में और दूसरी का लोकागच्छीय श्रावकस्य सार्थ पंचप्रतिक्रमणसूत्र में हुआ है। सामायिक दोष संज्झाय की अंतिम दो पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं
पूज्य श्री तेजसिंह जी, सूरत नगर चोमासे,
बरस सत्तर अठावने, गणी काहान जी इम भासे ।' इन रचनाओं के अलावा काहान जी गणि ने नेमनाथ स्तव ६ १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जौन गुर्जर कवियो भाग ३ पृ० १४०८
(प्र० सं०) भाग ५ पृ० २२१ (न० सं०)। २. वही भाग २ पृ० ४४७, भाग ३ पृ० १३९५ (प्र० सं०) और भाग ५
पृ० ६० (न० सं०)।
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