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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास पांडव चरित्र रास (सं० १७२८ आसो कृष्ण २ रवि, मेड़ता) का रचनाकाल--
संवत सतरे से भले वरसे वलि अठावीसे रे,
आसू वद द्वितीया तिथै रविवारे अधिक जगीसे रे । इसमें पाण्डवों की प्रसिद्ध कथा जैन दृष्टिकोण से लिखी गई है।
अंजना चौपई सं० १७३३ भाद्र शुक्ल ७ और आदिनाथ चौपई भी आपकी प्राप्त रचनायें हैं ।
रात्रिभोजन चौपई (सं० १७५० मागसर, लूणकरणसर) की प्रारम्भिक पंक्तियाँ आगे दी जा रही हैं-.
श्री वरधमान जिण वंदिये, अतुल बलि अरिहंत,
मद प्रमाद भय अठार दूबण, वरजित अतिशयवंत । कवि माँ सारदा से कालिदास के समान कवि बनने की कामना करता हुआ कहता है -
मन सुध सारद मातनो धरतां निशदिन ध्यान,
कालिदास पर कवि हवो, आऊ जाणों उपमान । इसमें रात्रि में भोजन का निषेध किया गया है। रचनाकाल देखिये--
सतरे से पचासे वच्छरे रे मनरंग मगसर मास,
लूणकरणसर में कीधी चोपाई रे, मन धरि अधिको उलास ।' पहले देसाई ने पांडव चरित्ररास को भूल से मानविजय की रचना बताया था, बाद में भूल सुधार कर लिया।
कर्मचंद/कर्मसिंह ये पार्श्वचंद्रगच्छ के जयचंद्र सूरि के प्रशिष्य और प्रमोदचंद्र वाचक के शिष्य थे। इन्होंने रोहिणी (अशोकचंद्र) चौपाई (२९ ढाल, ५५५ कड़ी सं० १७३० कार्तिक शुक्ल १० रविवार को जालोर में पूर्ण किया। इसका प्रकाशन जैन रास संग्रह भाग १ में हुआ है। उसमें इस रास के कर्ता का नाम कर्मचंद है। उसी के आधार पर देसाई ने भी जैन गुर्जर कवियो भाग ३ पृ० १३३० पर १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो भाग २ पृ० २५३, ३८५,
भाग ३ पृ० १२६१ और १३४७-४९ (प्र० सं०) तथा भाग ४ पृ० १८५-१८८ (न० सं०)।
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