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________________ मरुगुर्जर हिन्दी जैन माहित्य का वृहद् इतिहास गुरु परंपरा-तपगच्छ नायक जेसिंघ जी गुरुपाटवी रे, श्री विजयदेव सूरिराय रे, नरपति नरपति इंदल साह जेणि रीझव्यो रे जगि जस सुजय गवास रे । यह रचना इन्द्रशाह के शासन काल और गच्छनायक जयसिंह के पाटकाल में लिखी गई । 'शंखेश्वर पार्श्वनाथ स्तव' (१३५ कड़ी) का आदि देखिए--- कलावंत कवि केलवइ कौतुक कोडाकोडि, वदइ वादवादी बड़ा मानी मूंछ मरोडि । इसमें क, व और म पर अनुप्रास का प्रयोग कवि के शब्द प्रयोग पर अधिकार की सूचना देता है। इसकी प्रशस्ति प्राकृत में है। शंखेश्वर (पाव) जिनराज गीता (गीत) इसमें कवि ने प्रबल मोह से मुक्ति हेतु शंखेश्वर पार्श्वनाथ से विनती की है। वद्धिविजय की ज्ञानगीता से इसका पर्याप्त साम्य है । कवि कहता है धन्य दिवस धन ते घड़ी धन मुझ बेला तेह, जब सुखदायक त्रायक निरख्य सुं नेह । माया-मोह के पास क्रोध, मान, मद आदि की बड़ी फौज है जिसके बल-बूते पर वह चक्रधर, हलधर सबको जीत लेता है। कवि माया की निन्दा करता हुआ कहता है भरमा जगि धूतारी । ऊतारी नवि जाय ।' इसने ब्रह्मा, विष्णु, शिव सबको नचाया है। अतः जैसे तुलसीदास विनयपत्रिका में कहते हैं वैसे ही अन्त में उदयविजय जी प्रार्थना करते हैं कि हे नाथ मुझे इस माया-मोह से बचाइए । अन्त में गुरु की भी वंदना है श्री विजयदेव तपगछ राजा, श्री विजयसिंह गुरु बड़ा दवाजा । उत्तराध्ययन ३६ अध्ययन ३६ संञ्झाय सं० १७२६ का प्रारंभ इस प्रकार हुआ है १. प्राचीन फागु संग्रह पृ० २२८ २. वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002092
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages618
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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