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________________ आणंदरुचि स्तवन' लिखा जिसकी प्रारंभिक पंक्तियाँ निम्नवत् हैं-- श्री सिद्धाचल नित नमी, ऋषभ जिनेसर देव, भवभयवारण जिनवरु, सेव करी नितमेव । वीनत करूं मी माहरी रलीऊ भव अनंत, संसार सागर मांहि थिकउ, अव्यक्त मिथ्याती हंत । जनम मरण कर्या घणा, कहत न लाभे पार, पुद्गल परावरत अनंत जे, सूक्ष्म तेह विचार ।' गुरु परम्परान्तर्गत कवि ने तपागच्छ के विनयप्रभसूरि, विजयरत्नसूरि, उदयरुचि और पुण्यरुचि का सादर उल्लेख किया है, तदुपरान्त इन पंक्तियों में रचनाकाल का निर्देश किया है तस सीस लेसि स्तवीउ उलसी आणंदरुचि आदीसरो, इंदु मुनि गुणरस संख्या अह संवत्सर चितधरो। कवि ने जैन, शैव और यवन शास्त्रों को ध्यान में रखते हए पुद्गल पर विचार किया है। समन्वय की यह भावना औरंगजेब के समय, जब साझी संस्कृति का जनाजा निकल रहा था, अनोखी है। यह जैन साहित्य में ही संभव है अन्यत्र तो दुर्लभ थी। कवि लिखता त्रिण जग माँहि तीरथ अहवउ अवर न कोई जाणीउ। जैन, शैव जवन शास्त्रि, महिमा तास बखाणीउ । इसे ६ आरा स्तवन भी कहते हैं। इसमें पुद्गल-परावर्तन, सम्यक्त्व, १४ गुणस्थान और ६ आरा आदि का वर्णन किया गया है। यह साम्प्रदायिक रचना होते हुए भी अनेकांतवादी उदार दृष्टिकोण के कारण दुराग्रह मुक्त और समन्वयशील है। काव्यत्व सामान्य कोटि का है। रचना में छंद भंग के कारण लय और प्रवाह नहीं है। फिर भी जैसे घी का टेढा लड्डु भी अच्छा ही लगता है वैसे ही काव्य शिल्प भले अटपटा हो पर कवि-कथ्य उत्तम कोटि का है। आणंदवर्द्धन--ये खरतरगच्छीय महिमासागर के शिष्य थे। इन्होंने अरहन्नक रास सं० १७०२ (४), चौबीसी सं० १७१२, अंतरीक १. श्री देसाई-जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० ३५५ (प्रथम संस्करण) भाग ३ पृ० १३२६ और भाग ५ पृ० १७-१८ (नवीन संस्करण) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002092
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages618
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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