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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
जेजेनर आवे फरियाद, सुणे सहु को वादविवाद तुरत लेख लखि आपे घणा, न्याय करे कुलमुलकह तणा । "
इसमें नागौरी सरदार श्रावक रामचन्द्र और उनके पुत्रोंमानसिंह, हरिकृष्ण, भगीरथ और रूपचन्द की चर्चा है जिनके यहाँ गणि त्रिलोकसी ने सं० १७३१ में चौमासा किया था । वही पर यह रचना उसी समय हुई थी -
संवत सतर सये अकतीस, श्रावण मास सदा सुजगीस। गणित सार मुनि आनंद कहे, भणे गणे सीखे सुखलहे ।
हरिवंश चरित्र - ( सं० १७३८ कार्तिक शुक्ल १५ सोम, राधनपुर) आदि
श्री सुखदायक नेमजी, जादव कुलसणगार । श्री हरिवंश तिलक प्रभु, वंछीत वरदातार ।
रचनाकाल -- श्री राधनपुर रंगस्युं, सत्तरसे अड़त्रीस जी, कार्तिक सुदी पुन्य महीने, सोमवार सुजगीसजी ।
कवि ने यह रचना उत्तराध्ययन की टीका, ज्ञाता, अंतगड और समवायांग आदि अंग ग्रन्थों के आधार पर की है और यह चार खण्डों में है, यथा
चोथा खण्ड तणी सही, ढाल कही एकत्रीस जी, भणे गुणे बांचे सुणे, सुख संपत्ति जगीस जी ।' इसके अंत का कलश निम्नाङ्कित है
हरीवंश उतपती शास्त्र बहू श्रुति नेमि जिनपति जगगुरु, श्री कृष्ण यदुपति त्रिखंड नरपति बंधव बलभद्र खुषकरु । भामादि रुकमणि आठि भामणी, मुगतिगामणी गाइओ, संघ परजुन आदि बहु गुण भणत सहु सुष पाइओ ।
प्राणंदरुचि -- आप तपागच्छीय उदयरुचि के प्रशिष्य और पुण्यरुचि के शिष्य थे । आपने सं० १७३६ में 'षट् आर पुद्गल परावर्त्त स्वरूप
१. श्री देसाई – जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० २८३ (प्रथम संस्करण ) २ . वही पृ० २८६ (प्रथम संस्करण )
३. वही
भाग २ ० २८६ ( प्रथम संस्करण )
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