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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अमृतसागर- आप आंचलगच्छीय अमरसागर>नेमसागर>शीलसागर के शिष्य थे। आपकी एक रचना 'रात्रिभोजन परिहार रास' सं० १७३० की लिखी प्राप्त है। जैसा इसके नाम से ही सूचित होता है यह रात्रि भोजन छोड़ने की अच्छाइयों पर प्रकाश डालती है। इसका अपर नाम जयसेन कुमार रास भी है। यह सं० १७३० विजयदसमी गुरुवार को अंजार में लिखी गई थी। संबंधित पंक्तियाँ देखिये--
पूज्य पुरंदर चिरजगि प्रतपउ, गच्छ अंचल गणधार जी।
श्री अमरसागर सूरीश्वर सुपरई द्रूजां लगि थिरथार जी। रचनाकाल--श्री शीलसागर गुरु सुपसायइं, अमृतसिन्धु उदार जी।
सत्तरह त्रीसइ नमसुदि सातमि, जोडिरची जयकार जी।' इसमें तीन खण्ड है और ४४ ढाल है। तृतीय खण्ड के अन्त में भी कवि ने लिखा है
सतरह सई त्रीसइ संवच्छरि, विजयदसमि गुरुवारि। त्रीजे खण्ड थयउ तीहां पूरण, इणि परि पुरि अंजारि रे ।
चूंकि प्रति का प्रथम पृष्ठ अनुपलब्ध है अतः कृति का मंगलाचरण नहीं प्राप्त हो सका। कवि ने अपने को अमृतसिन्धु भी लिखा है। इस प्रकार नाम के खण्ड का पर्यायवाची प्रयोग कभी कभी भ्रम का कारण बन जाता है।
अमृतसागर II-एक अन्य अमृतसागर तपागच्छ के श्रुतसागर के शिष्य शांतिसागर के शिष्य हो गये हैं। उनकी एक गद्य रचना का उल्लेख मो० द० देसाई ने किया है वह है 'सर्वज्ञशतक बालावबोध', यह रचना सं० १७४६ में लिखी गई। उस समय वृद्धिसागर का सूरिकाल था। यह रचना अमृतसागर के दादा गुरु धर्मसागर सूरि की मूल रचना की व्याख्या है। मूल रचना में १२३ गाथायें हैं।
१. श्री देसाई-जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० २७१ और भाग ३
पृ० १२७४-७५ (प्रथम संस्करण) २. वही भाग २ पृ० ५९२, भाग ३ पृ० १६२५ (प्रथम संस्करण) और
भाग ५ पृ० ५४ (नवीन संस्करण)
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