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अमरसागर
इसमें कवि ने तपागच्छीय विजयदेव सूरि से लेकर विजयप्रभ, विजयरत्न, धर्मसागर, गुणसागर, भाग्यसागर और पुण्यसागर तक की गुरुपरंपरा का उल्लेख किया है। पूण्यसागर के बारे में वे लिखते हैं
तस चरण पंकज रसिक मधुकर अमरसागर सीसे । शिष्य ने हित करणइ कीधी चउपइ रे, पुहती. मनह जगीस। पंक्तियों से लगता है कि गरु के चरण कमलों में शिष्य अपने को भ्रमर के समान लिखने की रूढ़ि का प्रायः निर्वाह करते थे।
प्रमोचंद -आपने सं० १७१३ में 'सीमंधर जिनविज्ञप्ति' नामक रचना की। रचनाकाल इन पंक्तियों से प्रकट है--
संवत सत्तर से तेरोत्तरे सुचि मास सुदी सातमि शुक्रे स्वातियोगे शुभ तास । सूरि विजयप्रभ राज्ये चित्त तणे उल्लास ।
नयर वाडा मांहि थुणीयो रहे चौमास । अर्थात् यह रचना विजयप्रभसूरि के पट्टकाल में हुई थी। उस समय कवि वाड़ा या वडली में चौमास कर रहा था। वहीं के भक्तजनों के आग्रह पर आपने यह रचना की थी, यथा---
वडली नो वासी व्यवहारी शुभचित्त, गेलाकूल दीवो अमीचंद सुपवित्त । संवेगी सुधो त्यागी सब सच्चित्त । तवन रच्यं में भणवा तेह निमित्त ।'
अमृतगणिकी एक रचना 'नेमिराजुल संवाद' सं० १७३१ की सूचना जलगाँव के श्री उत्तमवंद कोठारी की सूची से मिली है। सूची में अन्य विवरण नहीं है।
१. श्री देसाई-जैन गुर्जर कविओ भाग २ १० १५२ (प्रथम संस्करण) २. उ० च० कोठारी -ग्रंथसूची (पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी)
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