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________________ सकलकीतिशिष्य आदि- जिनगुरु वाणीय करीअ प्रणाम, ___ जांणइ तुठि बुद्धि हुइ सुमान । कालद्वार नी परि तुमि सुणु, जिनवाणी तु निश्चई करु । सुखम सुखम जे पहिल काल, च्यार कोडा कोडि सागर धार । त्रिणी पल्य जीवी तसु होई, त्रिणि गाउ ऊचो देह जोई। अन्त- आगम शास्त्र थिका मइ कहा, निपुण निरंतर भणज्यो सहा । भणतां सुणतां पुण्य अपार, धरम तणु निश्चे हुइ सार । पंचम गुरु प्रणमूं नित करूं सेव, जिनवर वाणीमात नमेवि । श्री सकलकीरति गुरु प्रणमुं सार, भणतां गुणतां पुण्य अपार ।' सभाचंद-खरतरगच्छीय वेंगड़शाखा जिनचंदसूरि>पद्मचन्द 7 धर्मचन्द के शिष्य थे। इन्होंने 'ज्ञान सुखड़ी' की रचना सं० १७६७ फाल्गुन शुक्ल सप्तमी, रविवार को थट्टा में पूर्ण की। आदि- श्री गुरु ज्ञानी सुं कह्यो, आगम अर्थ विचार, भाव भगति सौं संग्रहो, ग्यांन सूखड़ी सार । रचनाकाल-- संवत सतर सतसढ़, आसनि आदितवार; सित फागुन फुनि सप्तमी, आनंद योग संभार । रचना स्थान थट्टा नगर बखाणीय, श्रावक चतुर सुजांण, सभाचन्द सोहे भलो, कुसल वरण कल्याण । १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग ३, प० १२३९-४० (प्र०सं०) और भाग ५, पृ० ४ (न०सं०)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002092
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages618
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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