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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास संवत निध खंड समुद्र चंद, जिनरस कीय रचना,
माघ सुकल सुत मही तिथ जु अकादसी निरणा । इसमें प्रयुक्त चंद = १, समुद्र ७, खंड =९ और ६ दोनों तथा निधि = ९ होता है इससे दोनों तिथियाँ १७६९ और १७९९ बनती है। नाहटा १७६९ बताते हैं।' पर मोहनलाल दलीचन्द देसाई १७९९ बताते हैं ।
इसी प्रकार गुरुपरंपरा में प्रयुक्त 'कोटिक' शब्द को लेकर भी शंकायें की गई हैं और कुछ लोग इन्हें कोटिक गण का और कुछ अन्य लोग कड़वागच्छ का कवि बताते हैं; पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
गछ कोटिक गुरु राज, प्रसिद्ध श्री पुज्य पंचाइण, जिनहरष जिन लबध, पाट हम्मीर परायण, विनयहरी लखराज हुव, दयाराम दिल सुद्ध लही,
शिष्य ओम पयंपै गुरु भगति, करजोड़े वेणीराम कही। मुझे तो स्पष्ट ही नाहटा जी का निर्णय ठीक लगता है और ये आद्यपक्षीय कोटिकगण के कवि सिद्ध होते हैं। श्री देसाई ने पहले इन्हें खरतरगच्छीय बताया था जो ठीक नहीं लगता। इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ निम्नलिखित हैं
गणपति सारद पाय नमी, आखु जिनरस अह, विघन विदारण सुखकरण, अविरल वाणी देह । नमण करीनै हुँ नमुं, प्रथम ज सद्गुरु पाय;
शास्त्र केरा सुभ अरथ, दीया मोहि बताय । आपने अपने आश्रयदाता की चर्चा इन पंक्तियों में किया है--
नयरी पीपाड ज नवल, कमधज माधौसिंघ,
कांमेती सोभौ अभौ, धरज ध्वजा धयधींग । 'धरम ध्वजा धयधींग' शब्दावली तुलसी की इसी शब्दावली की याद दिलाती है। १. अगरचन्द नाहटा-परंपरा, पृ० १०९ २. मोहनलाल दलीचंद देसाई - जैन गुर्जर कवियो, भाग ५, पृ० ३६६-३६७
(न०सं०)। ३. वही भाग २, पृ० ५११-५१२; भाग ३, पृ० १:३३ (प्र०सं०) और
भाग ५, पृ० ३६६-३६७ (न०सं०)। Jain Education International
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