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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास आगे वही गुरुपरम्परा दी गई है जो वैदर्भी चौपइ में बताई गई है। इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ निम्नलिखित हैं
सरसत माता समरी ये, नितप्रत लीजै नाम । चित माहे जे चितवै ते सविसीझै काम । पय जुग प्रणमी तेहना, विक्रमचरित कहेस ।
सांनिधि करज्यो मायडी हुं तुझ विनय बहेस ।' विक्रम चरित्र से सम्बन्धित दूसरी रचना को लीलावती अथवा चौबोली भी कहा जाता है। यह रचना सं० १७२४ प्रथम आषाढ़ कृष्ण दसमी को पूर्ण हुई थी। इसमें विक्रमादित्य और रानी लीलावती के परिणय की कथा कही गई है। इसका प्रारम्भ देखें ---
वीणा पुस्तक धारणी, हंसासन कविमाय । प्रह उगमंत नित नमुं, सारद तोरा पाय ।
चउबोलें राणी चतुर, शीलवती सुषकार ।
विक्रम परणी जिण विध्ये, कथा कहसि निरधार । इसके रचनाकाल से संबंधित पंक्तियों के दो पाठांतर मिलते हैं, प्रथम पाठ--
सतरै चउबीसें किसन दसमी, आदि आषाढ़ सही । और दूसरा पाठ--
सतर चौबीसे वर्ष ते जाण अ, मास आसाढ़ महिपति राण । कृष्ण दसमी सुगुरु विचार अ, संक्षेपे कह्यो में आचार ओ ॥२
मानतुंग मानवती चौपइ (१४ ढाल ३०० कड़ी सं० १७२७ आषाढ़ शुक्ल २, गुरुवार) इसमें मानतंग मानवती की प्रेमकथा के माध्यम से कवि ने सत्य की सर्वोच्चता प्रमाणित की है, यथा
धरम अनेक प्रकार छे, साँच समो नहि कोय ।
बोलणहारो साँचना, विरलो कोइक जोइ। रचना के अंत में भी इसी सत्य पर बल देते हुए लिखा है
१. श्री देसाई --जैन गुर्जर कविओ भाग ४, पृ० १७८ (नवीन संस्करण) २. वही भाग २ पृ० १४५ और भाग ३ पृ० ११९५-९८ (प्रथम संस्करण)
तथा भाग ४ पृ० १८ (न० संस्करण)
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