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________________ मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास पर उपगार दातार शिरोमणि, वर गुण चरणण सिरताजे । विक्रमराय तणो गुण वर्णन, कीधउ शास्त्र समझि माजे, सिंहासन बत्रीसी तामे, तिहाँ अधिकार सुणी जई। 'सवैया बावनी' में ५२ के बजाय ५६ छंद है। अकारादि क्रम से ५२ और दो-दो आगे पीछे जोड़ने से ५६ हो गये हैं। भर्तृहरिशतकत्रय के हिन्दी पद्यानुवाद का नाम भाषाभूषण बताया गया है। विनयलाभ का अपर नाम 'बालचंद' था इस विषय में कोई प्रमाण न मिलने से यह शंकास्पद है। भाषा सरल है। मुगल संसर्ग के कारण चलते उर्दू के शब्दों का भी प्रयोग यत्र-तत्र मिलता है।' (उपाध्याय) विनयविजय--आप तपागच्छीय कीर्तिविजय के शिष्य थे और प्रसिद्ध विद्वान्, लेखक-कवि और साधु श्री यशोविजय के आप गुरुभाई, सहपाठी और सहलेखक थे। आप दोनों का रचनाकाल १७वीं शताब्दी का अंतिम चरण तथा १८वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध है। ऐसे लेखकों का परिचय १७वीं शताब्दी के इतिहास खण्ड २ में दिया गया है और १८वीं शती में उनकी उन रचनाओं का संक्षिप्त परिचय दे दिया जा रहा है जो १८वीं शती में ही रचित हैं ताकि ऐसे विशेष महापुरुषों की विद्यमानता दोनों शतियों में अंकित रहे । __ श्री विनयविजय ने कल्पसूत्र पर संस्कृत में सुखबोधिका नामक टीका सं० १६९६ में और मरुगुर्जर में सूर्यपुर चैत्यपरिपाटी सं० १६९८ में लिखी थी, इस प्रकार इनका रचनाकाल १७वीं से प्रारंभ होकर १८वीं शती तक फैला है। सं० १७३८ में इनका स्वर्गवास हो गया, इसलिए श्रीपाल रास का शेष भाग अकेले यशोविजय जी को पूरा करना पड़ा। इस रास के साथ कुछ अन्य रचनाओं की चर्चा इस ग्रंथ के द्वितीय खंड में की जा चुकी है। ___ आपके गुरु कीर्तिविजय के सम्बन्ध में पहले दो शब्द लिखना आवश्यक प्रतीत हो रहा है, तत्पश्चात् आपके व्यक्तित्व एवं शेष कृतियों की चर्चा की जायेगी। श्री कीर्तिविजय के जन्म का नाम कल्याण जी था। उनके पिता सहसकरणजी वीरमगाम वासी पोरवाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002092
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages618
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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