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लक्ष्मीरत्न
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संभरण का भार स्वीकार किया। इस ग्रामीण बनिये का यह उत्साहपूर्वक दान देख नगरसेठ आदि अन्य महाजन चकित हुए और प्रेरित भी हुए और दुष्काल में लोगों की जान बचाने के कार्य में लगे। शाह प्रसन्न हुआ और उसने खेमा को शाह की पदवी दी। इसी घटना पर आधारित यह रास लक्ष्मीरत्न ने १८वीं शती में लिखा है। इसमें जंबूद्वीप, गुर्जर प्रदेश और शाहेवक्त बेगड़ा की प्रशंसा की गई है, यथा
पातसाह तिहा परगडो राज्य करे मोहम्मद बेगड़ो।
सतरसेत गुर्जर नो घणी, जिणे भुजबले कीधी पोहवी घणी। भाट की एक उक्ति आगे दे रहा हूँ
कसु सहर साहा बिना, पंडित बिना समाज,
जीम गुण हीणि गोरडी, तिम राजा हीण राज।' कवि ने रचना में अपना नाम इस प्रकार बताया है
कहे कवी लषमी रतन्न चांपानेर आवीया रे,
पांचमी ढाल रसाल सुणो रे सोभागिया रे । इस प्रकार यह रास ऐतिहासिक महत्व की सूचनायें देने वाली रचना है।
(उपाध्याय) लक्ष्मीवल्लभ --खरतरगच्छ के यशस्वी आचार्य जिनकुशलसूरि की परंपरा में उपाध्याय लक्ष्मीकीर्ति आपके गुरु थे । संस्कृत और मरुगुर्जर में आपकी अनेक रचनाएँ प्राप्त हुई हैं। आपने सिन्धी भाषा में भी कुछ स्तवन लिखे हैं। कल्पसूत्र, उत्तराध्ययन और कुमारसंभव पर आपने संस्कृत में पांडित्यपूर्ण टीकायें की हैं। टीका ग्रन्थों के अलावा संस्कृत में पंचकुमार चरित्र जैसे कुछ काव्यग्रंथ भी लिखे हैं। श्री अगरचन्द नाहटा ने इन्हें राजस्थानी का महाकवि कहा है। उन्होंने राजस्थानी भाग २ में 'राजस्थानी भाषा के दो महाकवि' शीर्षक लेख में इनका विशेष परिचय दिया है। इनके मरुगुर्जर रचनाओं की सूची आगे दी जा रही है ....
अभ्यंकर श्रीमती चौपई १७२५, रत्नरास चौपई १७२५, विक्रमपंचदंड चौपई १७२८ ( गारबदेसर ), रात्रिभोजन चौपई १७३८ १. संशोधक विजयधर्म सूरि-ऐतिहासिक रास संग्रह, भाग १, पृ० ६५-६६ ।
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