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अचलकीति
प्रचलकीति---आपका विस्तृत जीवनवृत्त ज्ञात नहीं है। आपने अपनी कृति 'अठारह नाते' में थोड़ा सा आत्मपरिचय दिया है
सहर फिरोजाबाद में हौं नाता की चौढ़ाल,
बारबार सबसों कहो हौं, सीषो धर्मविचार ।" इससे इतना निश्चित होता है कि ये भट्टारकीय परम्परा में शिक्षित-दीक्षित थे और इन्होंने प्रस्तुत रचना फिरोजाबाद में की थी। हो सकता है कि ये वहाँ के रहने वाले रहे हों। इनकी गुरुपरम्परा का पता नहीं चल सका । जैन समाज में अठारहनाते की कथा का प्रचलन पुराना है। यह रचना किसी संस्कृत ग्रन्थ पर आधारित प्रतीत होती है। इसके अतिरिक्त इन्होंने विषापहार स्तोत्र, धर्मरासो, कर्मबत्तीसी, रविव्रत कथा नामक ग्रंथ और कुछ स्फुट पद आदि लिखे हैं । विषापहार स्तोत्र नारनौल में सं० १७१५ में लिखी गई थी। इसका रचनाकाल इस प्रकार बताया गया है--
सत्रह से पन्द्रह सुभथान, नारनौल तिथि चौदस जान । संस्कृत के प्रसिद्ध कवि धनंजय ने इस स्तोत्र की रचना की थी। यह स्तोत्र उसका अनुवाद या कोरा अनुकरण नहीं है, उससे प्रभावित अवश्य है। भक्त की भावुकता और अभिव्यक्ति की प्रौढ़ता से यह रचना सरस हो गई है, यथा ---
प्रभु जी पतित उधारन आउ, बांह गहे की लाज निबाहु
जहाँ देखों तहाँ तुमही आय, घट घट ज्योति रही ठहराय ।' यह स्तोत्र जैनसमाज में बहुत प्रसिद्ध है।
कर्मबत्तीसी सं० १७७७ में समाप्त हई थी। इसमें कुल ३५ पद्य हैं । कर्मों के प्रभाव की चर्चा इसमें सरल ढंग से की गई है। प्रसंगतः पावानगरी और वीरसंघ का उल्लेख है जिससे अनुमान होता है कि ये उसी से संबंधित रहे होंगे । भाषा सरस एवं प्रवाहपूर्ण है। धर्मरासो और रविव्रत पूजा के नामों से वे धर्म और व्रत-पूजा सम्बन्धी रचनायें
१. श्री कामताप्रसाद जैन --- हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास पृ० ९७ २. नागरी प्रचारिणी पत्रिका सन् १९०० ३. डा. प्रेमसागर जैन--हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि पु० २४१-२४२
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