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________________ राजरत्न ૨૩ दान दया आसति मति आंणी, समकित नी सहि जांणी जी, पा० दीपचंद आग्रह मन आंणी, अरु शिक्षा ने सहिजांणी जी । " राजरत्न -- ये तपागच्छ के आचार्य लक्ष्मीसागर सूरि की परम्परा में विवेकरत्न > श्रीरत्न > जयरत्न के शिष्य थे । आपने बीजापुर में 'राजसिंह कुमार रास' की रचना सं० १७०५ पौष १०, रविवार को पूर्ण की। इसका प्रारम्भ इस प्रकार है- श्री ऋषभादि चौबीस जिणंद कि, पय प्रणमुं मनि धरीय आनन्द कि, सोहमादिक गणधर नमु जे जगि वंछित सुरतरु कंद कि, सहिगुरु आण निज सिरि वंदु, कुमति वल्लीवन जेह गयंद कि, रास गायसि नवकार नु, जेह थी उपसमइ दुरगति दंद कि । " गुरुपरम्परान्तर्गत लक्ष्मीसागर सूरि, सुमति साधु, हेमविमल, सौभाग्यहर्ष, सोमविमल, हेमसोम, विमलसोम, विशालसोम के पश्चात् लक्ष्मीसागर सूरि के शिष्यों - चन्द्ररत्न, अभयभूषण, लावण्यभूषण, हर्षकनक, हर्षलावण्य, विजयभूषण, विवेकरत्न, श्रीरत्न और जयरत्न की लम्बी सूची दी गई है । रचनाकाल इस प्रकार बताया गया है संवत सतर पचोतरा वरषिइ, पोस दसमि रविवार, अ आष्यान संपूरण कीधू बीजापुर नगर मझारि । अन्तिम पंक्तियाँ पार्श्वनाथ पद्मावती देवी, आदिनाथ जिनराय, तीरथ त्रिणि तेहनइ गरि विराजइ, प्रणमइ सीझइ काज | अ आख्यान नवकार तणुं नरनारी भणइ निसि दीस, राजरद्धि सोभाग सबल सुख, पामई सकल जगीस । आपकी दूसरी रचना 'चोमासी देवनंदन' है, इसका आदि इन पंक्तियों से किया गया है - -- १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई - जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० ५७३-७४; भाग ३, पृ० १२४-१२५ और पृ० ३२५-३२८ भाग ३, पृ० १४५५ ( प्र०सं०) तथा भाग ५, पृ० ३४२-३४७ ( न०सं० ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002092
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages618
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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