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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इसमें भट्टारक जिनलाभसूरि के सूरित्वकाल का उल्लेख है । कवि ने यह रचना अपने शिष्य माणिक्यराज के आग्रह पर दान का माहात्म्य दर्शित करने के लिए लिखा। इसमें कवि ने अपना नाम रुधपति और रूपवल्लभ दोनों दिया है । देसाई ने पहले इस रचना का कर्ता हर्षनिधान को बताया था।'
सुभद्रा चौपई (२५ ढाल ५४० कड़ी सं० १८२५ कार्तिक शुक्ल ४) आदि-- आदिकरण आदीसरु, शांतिकरण शांतीस,
नेमनाथ पारस प्रभू, वर्द्धमान सुजगीस । रचनाकाल
संवत अढारै पचवीस, हीयडो फागे हीस जी,
दिनकर सुतने चौथी सुदी से, सिद्ध जोगे सुजगीसे जी । इसके अन्त में लेखक ने अपना नाम रूपवल्लभ दिया है, यथा
इण इलमें अखीयात उबारी, सोझी नगरी सारी जी, निरखकरी कह्यौ नर नै नारी, थासै रूपवल्लभ बलिहारी जी । गुरु परम्परा में जिनलाभ सूरि के शासन का उल्लेख है, रचना का स्थान तोलियासर बताया है। दूसरी जगह कवि ने अपना नाम रुधपति भी कहा है, जिससे स्पष्ट होता है कि रुधपति ही रघुपति और रूपवल्लभ थे, यथा
शाखा जिनसुख सरि सवाई, पाठक पद प्रभुताई जी, विद्यानिधान सदा वरदाई, श्री रुधपत्ति सहाई जी। गुरुपरम्परा पूर्वोक्त ही है अतः रघुपति, रुधपति और रूपवल्लभ एक ही व्यक्ति के अलग-अलग नाम हैं, वे विद्यानिधान के शिष्य थे और १८वीं उत्तरार्ध तथा १९वीं पूर्वार्द्ध के सशक्त साहित्यकार थे। आपकी गद्य रचना दुरिभर स्तोत्र बालावबोध की चर्चा पहले ही की जा चुकी है, अतः प्रमाणित होता है कि न केवल पद्य बल्कि गद्य के क्षेत्र में भी रचना-सक्षम थे। प्रस्तुत रचना उन्होंने पाठक दीपचन्द्र के आग्रह पर की थी, यथा -
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग ५, पृ. ३४२-३४७
(न•सं०)।
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