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यशोवर्धन
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इसका प्रारम्भ इन पंक्तियों से हुआ है--
पुरिसादाणी पद नमी, प्रणमी सद्गुरु पाय, सासणनायक सरसती, सानिधि ने सुपसाय । नृप चंदन मलयागिरी, कहिस्यों कथा किलोल, सांभलता सुगणां नरा ऊपजसी हिल्लोल । जांणी नै अंतराय न कीजै, पर उपगार धरीज जी, यशोवरधन हीय जिन ध्याइजै, ज्यों अंतर संसार तरीजै जी।'
यशोविजय - इनकी तथा १७वीं शती में रचित इनकी कुछ रचनाओं की चर्चा द्वितीय खंड में की जा चुकी है। हेमचन्द के पश्चात् जैन शासन में दूसरा कोई इनके जैसा विविध विषयों का पारंगत विद्वान् और प्रभावक आचार्य नहीं हुआ। सर्वशास्त्र पारंगत इस प्रकार के अन्य विद्वान् हरिभद्र सूरि अवश्य माने जाते हैं। कांतिविजय ने 'सूजसवेली भास' में इनके बहमुखी गुणों का वर्णन किया है। गजरात के कन्होडू ग्रामवासी नारायण व्यवहारी की भार्या सौभाग्य दे की कुक्षि से इनका जन्म हुआ था। सं० १६८८ में नयविजय ने दीक्षा देकर यशवंत का नाम यशोविजय रखा । माता सौभाग्य देवी सचमुच परम भाग्यशालिनी थी कि उनका पुत्र इतना यशस्वी निकला और अपने नाम यशोविजय को सार्थक किया। इनकी बड़ी दीक्षा विजयदेव सूरि ने की थी ? इन्होंने काशी में विविध शास्त्रों का गहन अभ्यास किया था। इनके विविध गुणों के बारे में कांतिविजय ने लिखा है
श्री यशोविजय वाचक तणा, हुं तो न लहुं गुण विस्तारो रे; गंगाजल कणिका थकी, अहना अधिक अछे उपगारो रे । इनके सैकड़ों रचनाओं की सूची द्वितीय खण्ड में दी जा चुकी है और कुछ ग्रंथों का परिचय भी दिया जा चुका है।
श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने १८वीं शताब्दी (विक्रमीय) के पूर्वार्द्ध को (सं० १७०१-४३) यशोविजय युग कहा है जो एक हद तक उचित हो सकता है । इसलिए इनकी संक्षिप्त चर्चा १८वीं शती में भी अपेक्षित और आवश्यक है। पर देसाई का यह नामकरण सर्वमान्य १. मोहनलाल दलीचंद देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० ३७८-८०
और भाग ३ पृ० १३३८ (प्र०सं०) और भाग ५, पृ० ५८-६० (न०सं०)
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