________________
३८२
म गुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
है, ऐसा मैं नहीं समझता क्योंकि यह आवश्यक नहीं कि जिसे श्वेताम्बर युगपुरुष मानें उसे दिगम्बर भी मान लें; फिर तप, ज्ञान या रचना बाहुल्य श्रद्धा के कारण हो सकते हैं पर युग प्रवर्त्तन का नहीं । युग प्रवर्तक को नवीन साहित्यिक प्रवृत्ति, वाद या स्कूल का प्रारम्भकर्त्ता होना चाहिए । इस दृष्टि से १७वीं और १८वीं (वि०) शताब्दी के जैन साहित्य में कोई पार्थक्य नहीं मिलता, पता नहीं किस आधार पर देसाई ने 'जैन साहित्य नो इतिहास' में १८वीं शताब्दी को अपने इतिहास के विभाग सातवें के प्रारम्भ में यशोविजय युग को 'भाषा साहित्य नो अर्वाचीन काल' कहा है ' जबकि उन्होंने १७वीं शती को मध्यकाल में रखा है । श्री देसाई ने यह नहीं बताया कि कौन सी अर्वाचीन प्रवृत्तियाँ १८वीं शताब्दी में उदित हो गई । व्यक्तिगत रूप से यशोविजय समयज्ञ, सुधारक, न्यायशास्त्री, योगवेत्ता, अध्यात्मवादी और महान साहित्य सर्जक हैं पर युगप्रवर्तक नहीं हैं क्योंकि उन्होंने किसी नवीन प्रवृत्ति का सूत्रपात नहीं किया जो आगे एक साहित्यिक वाद या धारा के रूप में प्रवाहित हुई हो ।
काशी से न्यायविशारद और आगरा से तर्कशास्त्री की उपाधि प्राप्त करके ये गुजरात गए और वहाँ के तत्कालीन हाकिम महोबत खान के समक्ष अष्टादश अवधान का प्रदर्शन करके उससे सम्मानित हुए । विजयदेवसूरि ने उपाध्याय पद से विभूषित किया । इन्होंने न्याय, तर्क, योग पर प्रभूत साहित्य की रचना की है। जिसकी टक्कर का साहित्य हरिभद्रसूरि और हेमचन्द्र के अतिरिक्त अन्य किसी जैन सर्जक का नहीं मिलता । इन्होंने महर्षि पतंजलि के योगदर्शन सांख्य सिद्धान्त की जैनधर्मानुसार प्ररूपणा की । अध्यात्मी यशोविजय का परिचय तत्कालीन अलौकिक योगी आनन्दघन से हुआ जिनके गुणानुवाद में यशोविजय ने हिन्दी में अष्टपदी लिखी
जशविजय कहे सुन हो आनंदघन । हम तुम मिले हजूर
X
X
X
X
या
जरा कहे सोही आनंदघन पावत अंतर ज्योत जगावे अथवा आनंदघन आनंदरस झीलत देखत ही जश गुण गाया ।
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई - जैन साहित्यनो इतिहास पृ० ६१९ । २. वही पृ० ६४१ (प्र०सं०)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org