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मोतीमाल
रचनाकाल
सहस वदन जो सुरगुर गावे, परमेसर गुण नो पार न आवे, मतहीण मानवी केम बषाणे, शिशु जिम सायर मुज मति जाणे । सतर अठाण दिवाली ठाणुं, ससहरनी पासे प्रेमापुर जाणुं । संभव सुखलहरी पसरी कल्याण, मोतीमालुज्ज लोक जैन वाणि । "
अर्थात् यह रचना सं० १७९८ में दीपावली के पर्व पर प्रेमापुर में पूर्ण हुई। श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने जैन गुर्जर कवियों में ससहर का अर्थ अहमदावाद बताया है । यह रचना ससहर के पास प्रेमापुर में रची गई । जो हो, प्रेमापुर अहमदाबाद का एक मुहल्ला है और यह रचना वही की गई थी ।
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मोहनविजय - तपागच्छीय आचार्य विजयसेन सूरि > कीर्तिविजय मानविजय > रूपविजय के ये शिष्य थे । इन्होंने कई उत्तम रचनाएँ की हैं जिनका संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है ।
नर्मदा सुंदरी रास (६३ ढाल, १७५४ पौष कृष्ण १३, शुक्रवार, समीनगर )
आदि-प्रभु चरणांबुज रज तणी वज्जी ने होइ ठोक, भायो बली जग जेहनो, बीहूं अक्षर ने श्लोक |
इस कृति में नर्मदासुंदरी के शील का महत्व बताया गया है, यथा
चक्षू श्रवण सीलें करी, थयो कुसुम नी माल; पावक पण पाणि थयो, शीले सीह सीयाल । सीलरूप सन्नाह थी, मनमथ नृप नां वाण; बेधी न सके वृक्ष ने, रे मन मृषा न जांण । शील तणे अधिकार अथ, नमदासुंदरी चरित्र, रचिस शास्त्र अनूं सारथी, वर्णन करी विचित्र ।
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अह संबंध छे शील कुलक में जोयो सुगुण जगीसे जी, भरहेसर बाहुबली वृत्ति प्रगट संबंध में दीसे जी ।
१. मोहनलाल दलोचन्द देसाई - जैन गुर्जर कवियो, भाग ३ पृ० १४७०-७१ (प्र०सं० ) और भाग ५ पृ० ३६४ ( न० सं ० ) ।
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