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मानविजय 1
इसकी प्रारंभिक पंक्तियाँ अनलिखित हैं
प्रणमुं जिन चउवीसमो महावीर शुभनाम,
जासु प्रसाद सदा फलइ वांछा सुरतरु ताम।' यह रचना उन्होंने अपने शिष्य देवविजय के लिए की थी। देवविजय के लिए इन्होंने 'धर्मपरीक्षा' ग्रंथ संस्कृत में लिखा था। आपकी एक अन्य रचना श्रीपालरास का भी उल्लेख मिलता है जिनकी गुरु परंपरा में तपागच्छ के विजयसिंह सूरि को प्रगुरु और जयविजय को गुरु कहा गया है। इसका रचनाकाल इस प्रकार बताया गया है ---
युग गगन मुनी शशी वरसनी आसो सुदि दशमी शशिवार रच्यो रास चंद्रप्रभ पसाउलइ रे, पील वणा मझारि। जपो।
अर्थात् यह रचना सं० १७०४ आसो सुदि दसमी सोमवार को पीलवण में की गई। इसमें अकबर प्रबोधक हीरविजय का स्मरण इन पंक्तियों में है
तपगछ नायक जगगुरु; श्री हीरविजय सूरींद,
अकबर जेणइ प्रतिबोधियो, जिनसासन रे जयकार मुणिंद । इनके पद्य पर क्रमशः विजयसेन, विजयदेव और विजयसिंह आसीन हुए। उनकी वंदना करके कवि ने स्वयं को विजयसिंह के शिष्य जयविजय का शिष्य बताया है, यथा--
आचारिज श्री विजयसिंह सूरि, सकल सूरि सिरदार, बुधजयविजय सिसइ रच्यो, मानविजयइं रे, लह्यो सुजस अपार ।
इस कवि ने छठा कर्मग्रंथ की वृत्ति भी लिखी थी जिसकी प्रति भावनगर के भंडार में उपलब्ध है।
१८वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में कम से कम चार मानविजय नामक कवियों का पता चलता है। इनके विवरण आगे क्रमशः दिए जा रहे हैं।
मानविजय II -ये तपागच्छीय गुणविजय के शिष्य थे। इन्होंने
१. मोहनलाल दलीचंद देसाई--जैन गुर्जर कवियो, भाग ३, पृ० ११८३-८४
(प्र०सं०) और भाग ४ पृ० ६९ (न०सं०)। २. वही, भाग २, पृ० १२८-१३० (प्र० सं०)। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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