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गुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
गुरु परम्परान्तर्गत कवि ने पार्श्व चंद्र एवं जयचंद्र का वंदन किया है । इसकी अंतिम पंक्तियाँ इस प्रकार है
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गुण गाता श्री शालना रे जनम सफल करि जांण, श्री पद्मचंद्र सूर बीनवइ रे, वाणी यह परिणाम |
इस प्रकार १८वीं शती के पूर्वार्द्ध में पद्मचंद्र, पद्मचंद्र मुनि, पद्मचंद्र सूरि और पद्मचंद्र शिष्य का उल्लेख मिलता है किन्तु इनके सम्बन्ध में अधिक शोध की अपेक्षा है ।
पद्मनिधान - आप विजयकीर्ति के शिष्य थे । आपने सं० १७३४ में 'बारव्रत विचार' की रचना की । इसके रचनाकाल की सूचना निम्न पंक्तियों में है
संवत सतरै चौतीस समइ रे शुभ महूरत सुभवार, सद्गुरु ने वचने करि आदर्या रे धर्मइ जयजयकार | गुरु का उल्लेख इन पंक्तियों में हुआ है
वाचना चारिज विजयकीरति सीस पदमनिधान अ, तसु पासि पूरि श्रविकायइ धरया व्रत परधान ओ । इसे श्रावकों के लिए प्रधान व्रत बताया है ।
२
पद्मविजय - - - तपागच्छीय शुभविजय आपके गुरु थे । आपने 'शीलप्रकाश रास' सं० १७१५ और श्रीपाल रास की रचना की । दूसरी रचना का रचनाकाल सं० १७२६ चैत्र शुक्ल १५ बताया है । इसकी प्रति स्वयं लेखक द्वारा ही लिखित उपलब्ध है । आपकी तीसरी रचना २४ जिननुं स्तवन ( २५ कड़ी) की अन्तिम पंक्तियाँ आगे दी जा रही है
श्री विजयानंद सूरि गणधरु, शुभविजय बुधराय, तस पदपद्म निज शिरे धरी, जिनपद पद्म गुण गाय ।
१. मोहनलाल दलीचंद देसाई - जैन गुर्जर कवियो, भाग ३, पृ० १२१६-१७ प्र०सं० और भाग ४, पृ० ३१० - ३११ ( न० सं० ) ।
२. वही, भाग २, पृ० २९६ ( प्र०सं० ) और भाग ५, पृ० ८-९ (न०सं० ) । ३ वही, भाग २, पृ० १५८, भाग ३, पृ० १२०३ ( प्र०सं० ) और भाग ४,
पृ० २७४ (न० सं० ) ।
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