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दो उतराम कासलीवालं
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यह उद्धरण पुण्यास्रव कथाकोष का है। इस ग्रन्थ की रचना सं. १७७७ भाद्र कृष्ण ५ को ८००० श्लोकों में पूर्ण हुई थी। इसकी भाषा सरल हिन्दी है। इसकी हरदेव द्वारा लिखित प्रति सं० १८८८ की उपलब्ध है।' डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल ने इनकी अनेक कृतियों की सूचना दी है। इनके जीवंधर चरित की चर्चा डा० लालचन्द जैन ने भी अपने ब्रजभाषा जैन प्रबन्धों में की है। कामता प्रसाद जैन ने भी अपने संक्षिप्त इतिहास में इनकी कुछ रचनाओं का नामोल्लेख किया है।
दौलतविजय --ये खरतरगच्छ के विद्वान् शांतिविजय के शिष्य थे। इनका जन्म नाम दलपत था। इन्होंने चित्तौड़ के राणा खुमाण को नायक बनाकर चितौड़ के महाराणाओं की शौर्य गाथा पर आधारित ग्रंथ 'खुमाण रास' लिखा है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के आदि काल का नामकरण वीरगाथाकाल करते समय जिन वीरगाथाओं का उल्लेख किया था, उनमें यह ग्रंथ भी गिना गया था। इसलिए इस पर बड़ी चर्चा हई और इसके पक्ष-विपक्ष में बहुत कुछ लिखा-पढ़ा गया किन्तु विडम्बना यह है कि मल ग्रन्थ सम्भवतः किसी पण्डित ने देखने का कष्ट नहीं उठाया। अतः इसे आठवीं शती से लेकर १७वीं शती तक की रचना बताया जाता रहा।
सर्वप्रथम अगरचंद नाहटा ने पूना से इसकी हस्तप्रति मंगवा कर उसका प्रामाणिक विवरण दिया और इसे १८वीं शती के उत्तरार्द्ध की रचना बताया। प्रो० श्रोत्रिय ने अब इसका सम्पादन करके प्रकाशन (उदयपुर) कर दिया है, यह अच्छा शोधप्रबन्ध है और इस कवि और उसकी इस प्रसिद्ध कृति के लिए अधिक जानकारी हेतु वह शोधप्रबंध देखा जा सकता है।
आचार्य शुक्ल ने अपने इतिहास में यह स्पष्ट लिखा था कि
१ डा० कस्तूरचंद कासलीवाल--राजस्थान के जैन शास्त्र भंडारों की ग्रंथ_सूची भाग ३ पृ० ८४ और भाग ४ पृ. २३३ । २. कामता प्रमाद जैन -हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास पृ. १८० ३. अगरचन्द नाहटा-परंपरा पृ० ११२ । ४. आ० रामचन्द्र शुक्ल--हिन्दी साहित्य का इतिहास पृ० २३-२४
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