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________________ ज्ञानकोति १८३ रचना-काल-सायर गुण ऋषि चंद्र संबच्छरि, माघ मासि सुदि जाणु रे । थंभणनयरे संघ आदेशे छट्टि दिन चढ्यो प्रमाण रे । इस रास की अंतिम पंक्तियाँ निम्नांकित हैं-- भणता गुणतां संपति थाइ, दुख दालिद्र सब जाई रे। नवनिधि सिद्धि घणेरी आई, हृदई हर्ष न माई रे।' ज्ञानकुशल -आप तपागच्छीय विजयकुशल के प्रशिष्य और कीर्ति कुशल के शिष्य थे । आपने ( शंखेश्वर ) पार्श्वनाथ प्रवंध ( ४ खंड ५६ ढाल १८८५ कड़ी) का निर्माण १७०७ मागसर कृष्ण ४, मोहीग्राम में किया। आदि--पणमि पयकमल वर विमल निअ गुरु तणा; थुणिसु पहु पासना सुगुण सोहामणा । १८वीं शती में भी मरुगुर्जर की प्राचीन प्राकृताभास शैली का निर्वाह करने के लिए कवि ने प्रणमि के बदले पणमि, पद के लिए पय, निज के स्थान पर निअ का प्रयोग किया है - आदि दस भवि भणिसु हुं पहू पास ना, बिंब उतपत्ति पुण तित्थ नी थापना । रचना के विस्तार के बारे में कवि ने लिखा है च्यारिवरखंड ब्रह्मांड परि विस्तरे, ढाल सुविशाल स्यु रंग रस बहुतरे । करिसु इम पार्श्व प्रबंधनी वर्णना, सुणह भो भविजना ऊधं आलस बिना। इसका प्रथम खण्ड १७०७ के आषाढ़ में और सम्पूर्ण खण्ड उसी वर्ष मागसर मास में पूर्ण हुआ। रचनाकाल -संवत सतर सतोतरे (१७०७)मगसिर वदि चौथे गायो रे। शांतिनाथ सुपसाउले परमानंद परिधता पायो रे। १. मोहनलाल दलोचन्द देसाई --जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० ३०६ भाग ३ पृ० १२९६ (प्र०सं०) और भाग ५ पृ० २६-२७ (न० सं०)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002092
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages618
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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