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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ___ खेमहर्ष - ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह में 'जिनरतन सूरि गीतानि' के अन्तर्गत 'खेमहर्ष' के दो गीत संकलित हैं। इसमें पहला गीत सात कड़ी का है क्रम संख्या दो पर छपा है और क्रमसंख्या ३ पर इनका दूसरा गीत प्रकाशित है, यह मल्हार राग में निबद्ध नौ कड़ी का गीत है। इसकी अन्तिम कड़ी उदाहरणार्थ प्रस्तुत है -- .
वाणी सुधारस वरसइ सुणिवा कुं जन मन तरसइ;
इम खेमहरष गुण बोलइ, पूज्य जी के कोई न तोलई ।९। इनके सम्बन्ध में अन्य विवरण नहीं प्राप्त हुआ पर ये जिनरत्नसूरि की परम्परा के साधु होंगे।' इससे पूर्व रूपहर्ष का पहला गीत संकलित है जो राजविजय के शिष्य थे, शायद ये भी उन्हीं के शिष्य हों।
गजकुशल-तपागच्छीय दर्शनकुशल के शिष्य थे। इन्होंने सं० १७१४ में 'गुणावली कुणकरंड रास की रचना दानधर्म के विषय में की है। इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ निम्नांकित हैं---
सकल मनोरथ पूरवे श्री संखेसर पास, परता पूरण प्रणमीइं लहीईं लीलविलास, सफल मनोरथ आस । तप उज्वणो विधी स्युं कीजे, दानसुपात्रे दीजे रे,
राग द्वेष मन मां ना णीजे मनुअ जनमफल लीजे रे। रचनाकाल --संवत सत्तर चौदोत्तरा वरसे काती मास वखाणे रे।
सुदि दसमी शुभ दिन गुरुवारे रास चढ्यो परिणामे रे । गुरुपरम्परा-श्री तपगच्छे तेज विराजे, दिन दिन अधिक दिबाजे रे,
विजयप्रभ सूरीसर राजे, रास कीयो हितकाजे रे । तस गछ पंडित माहे प्रधान, विनयकुशल बुध जांण,
वादी गंजण केसरी समवड, सहुको करे वषाण । इन्हीं विनयकुशल के योग्य शिष्य' दर्शन कुशल का कवि शिष्य था, उनको प्रणतिपूर्वक नमन करके कवि कहता है
चरित अने वलि जूनी चोपई कीधो रास में जोई, अधिको आछो जो मैं भाख्यो, भिच्छा दुक्कड़ सोई ।
१. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ।
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