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खेम
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इसकी सं० १७८८ की प्रति जैन सिद्धांत भवन, आरा में उपलब्ध है। इसमें गोरखपुर के राजा गजसिंह और सेठपुत्री गुणमाला की कथा है।' गोरखपुर का वर्णन देखिये -
पूरब देस तिहां गोरषपुरी जांण इलिका आणि नैधरी। बारह जोयण नयरी विस्तार, गढ़ मढ़ मंदिर पेलि पगार । युवती गुणमाला के रूप गुण का वर्णन भी कवि ने मनोयोगपूर्वक किया है --- यथा- कंचू पहरि जड़ाव की कीधी कुचोपरि छांह,
सोभा अति अंगिया तणी, जेहनी बडीयाँ बाँह ।
पेटइ पोइणि पत्रह तिसौ उपरी त्रिवली थाय, गंगा यमना सरसती तीनो बैठी आय। नाभिरत्न की कुंदली जंघा त कदली खाँभ ।
मानव गति दीसै नहीं, दीसै कोई रंभ ।' विवाह के पश्चात् उसकी माँ ने गुणमाला को पातिव्रत धर्म की शिक्षा दी जिसका निर्वाह उसने प्राणप्रण से किया। इसमें मध्यकालीन समाज का सजीव चित्रण मिलता है -
खेमचन्द ने गुणमाला चौपई की रचना सं० १७६१ से पूर्व ही की होगी। उसी के आसपास इन्होंने '२४ जिनस्तव' भी लिखा क्योंकि सं० १७६१ की इसकी प्रतिलिपि खेमचन्द के शिष्य मुनि वीरचन्द्र द्वारा लिखित गुलाब विजय भण्डार, उदयपुर में उपलब्ध है। इसके अन्त की कुछ पंक्तियाँ उदाहरणार्थ दी जा रही हैं ---
विजयप्रभ सूरि राय, सूरि शिरोमणि रे, सु० श्री विजयरत्नसूरींद, मुनिवर नोधणी रे, सु० मुगतिचंद गुरु सीस, पेमचंद इम भणइ रे,
गाया जिन चौबीस, ऊलट अति धणइ रे । १. श्री नेमिनाथ शास्त्री--हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन । २. श्री कामता प्रसाद जैन--हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास पृ०
१६२-६३ । ३. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-र्जन गुर्जर कविओ भाग ६ पृ० २५५ प्र०सं०,
भाग ५ पृ० २५० न०सं० ।
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