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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
हैं । इन्होंने रसिक प्रिया भाषा टीका नामक गद्य की रचना सं० १७२४ जोधपुर में की थी। 'सभाकुतूहल' इनका एक अन्य वर्णन संग्रह ग्रन्ध है ।' उद्यमकर्म संवाद की कुछ पंक्तियाँ पहले देखिये
उद्यम कर्म बिहुंतगउ सूरिराय सिरताज,
न्याय विवेच्य इम विमल युगवर श्री जिनराय । रचना समय -- संवत सोल निन्याणवे किशनगढ़े सुखकार, उद्यम कर्म संवाद इम कहइ धीर अणगार । धरम धुरंधर सुघड़ अति श्रावक सच्चीदास, आग्रह तेहने इम कहे, कुशलधीर सुप्रकाश । राजषिकृतकर्म चौपई का आदि
परम पुरुष परमेष्ठि पय, प्रणमुं परमानंद । सेवकजन सुख पूरवई, परतषि सुरतर कंद |
रचनाकाल - संवत सतरह सय अठवीसयइ रे, सोझित नगर मशार । धरमनाथ जिनवर सुपसाउलइ रे, ओ चउपइ रचीय उदार ।
भोजराज चौपइ (सं० १७२९) में दान की महिमा का दृष्टांत भोज चरित्र द्वारा दर्शाया गया है, यथा
दान त अधिकार दीपाई, कहीय कथा चितलाई बे । इमि जे दान सुपात्रे देसै, वंछित फल ते लहस्ये बे ।
इसमें कहा गया है कि पंचम आरे में भोजराज नामक महादानी राजा हुआ । यह रचना उसी के दान का वर्णन करती है । इसके पांच खण्डों में से प्रथम खण्ड में मुंज भोज की उत्पत्ति, भोजराज प्रतिबोधक धनपाल सोभन का स्वर्गगमन वर्णित है । प्रथम खण्ड १७२९ कार्तिक कृष्ण षष्ठी को पूर्ण हुआ
प्रथम खण्ड पूरो कीयो, करे ग्रन्थ अकठ | निधिभुज संवच्छरे कार्तिक वदि छठ ।
१. अगरचन्द नाहटा - - परंपरा पृ० १०१-१०२ ।
२. मोहनलाल दलीचन्द देसाई जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० १२६८ (प्र० सं० ) ।
३. वही
४. वहीं, भाग ३ ० १२६६-६७ (प्र० सं०) ।
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