________________
किशन सिंह
विधान कथा पद्य २२५) इसे मूलतः अभ्र पण्डित ने संस्कृत में लिखा था; उसी पर यह रचना आधारित है
कथा संस्कृत यह अभ्र पण्डित ने कीनी, हरष ब्रह्म उपदेश पाय सुखकर रचिलीनी ।
( वही पद्य २२३) लब्धिव्रत की महिमा बताई गई है। गौतम ने यह व्रत पूर्वभव में किया था जिसका परिणाम गणधर पद की प्राप्ति थी। यह दोहा चौपाई और अन्य तेरह छन्दों में लिखा गया है।
पुण्यास्रव कथाकोश-यह महत्वपूर्ण रचना सं० १७७३ में रचित है। इसमें जैन भक्तों की पद्यवद्ध कथायें हैं। आदिनाथ जी का पद सं० १७७१ में रचित है, यह प्रथम तीर्थङ्कर आदिनाथ की स्तुति में लिखा गया है । चतुर्विंशति जिनस्तुति-एक चौबीसी है । पार्श्वनाथ की स्तुति में रचित एक छप्पय की अन्तिम दो पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं -
गणधर जु भये दस ज्ञान धर कोस पाँच समवादि मनि ।
श्री पार्श्वनाथ वंदौ सदा कमठ मान वन दव अगिनि । इन्होंने भक्तिपूर्ण सरस पदों की भी रचना की है; एक पद की पंक्तियाँ देखें
जिन आप कुं जोया नहीं, तन मन कुँ खोज्या नहीं,
मन मैल कू धोया नहीं, अंगुल किया तो क्या हुआ। इसकी भाषा शुद्ध खड़ी बोली है, यह खड़ी बोली हिन्दी पद्य के प्राचीनतम नमूनों में गणनीय है। इससे खड़ी बोली पद्य साहित्य की प्राचीनता भी प्रमाणित होती है साथ ही कबीर आदि सन्तों की भावभाषा शैली का प्रसार विकास भी दिखाई पड़ता है। इन प्रमुख रचनाओं के अलावा श्रावक मुनि गुण वर्णन गीत, एकावली व्रत कथा आदि का भी पता चला है ।
किशनदास और किशनसिंह राजस्थान, गुजरात या उत्तर प्रदेश के थे यह विवाद महत्वहीन है। वे जहाँ बस गये थे, वहाँ के ही थे। किसनदास गुजरात (अहमदाबाद) और किशनसिंह (सांगानेर) राज
१. डॉ० लालचन्द जैन--जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रवन्ध काव्यों का अध्ययन
९१-९२ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org