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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
आदि - वीर जिणेसर पद कमल, प्रणमी बहु रागेण, जंबू चरित सोहामणो बोलिस सरस रसेव । सुणता होइ सुख संपदा, जपतां दुरित पलाय, जंबूनाम सोहामणउ, नमे सुरासुर पाय । अंत में गुरुस्मरण - सकल शास्त्र सिद्धान्त वखाणौ
शील विजय गुरुरायरे,
जस कीरति जगमांहि जयवंती,
नामै नवनिधि थाय रे । '
कमलशेखर (वाचक) --ये अंचलगच्छीय वेलराज के प्रशष्यि लाभशेखर के शिष्य थे । आपने सं० १६०९ आसो ३ को सूरत में 'नवतत्वचौपइ' (६५ कड़ी) की रचना की । कवि ने नवतत्वचौपइ में गुरुपरम्परा इस प्रकार बताई है.
"विधि पक्षि गछि ओ उदयभाण, श्रीधर्ममूर्ति सूरिसुजाण । तास पसाइ लहीया भेय, विसइछिहत्तर हुआ तेअ ।" इसका रचनाकाल, आदि और अन्त आगे दिया जा रहा है ।
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रचनाकाल - संवत सोल नवोत्तर वरसि, सूरति आसू त्रितीया दिवसि, रची चुपइ सोहामणी, भणतां गणतां हुइ बुद्धि घणी । आदि - "सरसति सांमाण समरुं माय, पास जिणेसर पण पाय । कहुं नवतत्व संखेपि विचार, जिणि हुई समकित सार ।" - अन्तर महूरत समकित धरइ, ते नर आधु पुद्गल करइ, वाचक कमलशेखर इम कहइ, भणिइ भविइ सिद्ध पदवी लहइं
अन्त
२
इन्होंने 'धर्ममूर्तिगुरुफागु' भी लिखा है जो प्राचीन फागुसंग्रह में प्रकाशित है । इनकी तीसरी रचना प्रद्युम्नकुमार चौपड़ में छह सर्ग हैं । यह ७९३ कड़ी की विस्तृत रचना सं० १६२६ कार्तिक शु० १३ at मांडल में लिखी गई । पूरी रचना दोहे चौपाइयों में लिखी गई है । इसका प्रारम्भ देखिये -
१. अगरचन्द नाहटा - परम्परा पृ० ९१ और जैन गुर्जर कविओ (नवीन संस्करण ) भाग ३ पृ० ३३२ ।
२. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ ( प्राचीन संस्करण) पृ० ६५९-६१ और भाग २
( नवीन संस्करण) पृ० ४३-४४ ।
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