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कमलकीति - कमलविजय II
कमलविजय I—आप तपागच्छीय आचार्य हीरविजयसूरि के प्रशिष्य एवं विजयसेन सूरि के शिष्य थे । आपने सं० १६३१ में 'दंडक स्तवन',
और सं० १६८२ में 'सीमंधर स्वामी विज्ञप्तिरूप स्तवन' जालौर में लिखा। सीमंधरस्तवन में १०५ पद्य हैं। यह रचना प्रकाशित है। इसका प्रारम्भिक छंद इस प्रकार है--
स्वस्ति श्री पुष्कलवती जी विजयइ विजय जयवंत । प्रगटपुरी पड़रिगिणी जी, जिहां विचरइ भगवंत । सोभागी जिन सांभल्यो संदेश, हं तउ लेख लिखं लवलेस ।
मुझ तुझ आधार जिनेस, साहिब जी सुणज्यो तुझ संदेस ।' रचनाकाल -संवत. सोल व्यासीइ रे, सुर गुरुवारि प्रसंगि,
दीवाली दिवसई लिख्यो रे, कागल कागल मननइ रंग। सिरि तपगण गयणंगण दिणयर सिरि विजयसेन सूरीणं ।
सीसेण संथुणिउ सहरिस कवि कमलविजयेणं । पाठान्तर-- संवत सोल व्यासीइ' श्री जालोर मझारि,
- चैत्रधवल पंचमी दिनइ वलवत्तर बुधवारि । इस प्रति में विजयसेन के पट्टधर विजयदेव को गुरु बताया गया
कमलविजय II.--आप तपागच्छीय मेघविजय > कनकविजय > शीलविजय के शिष्य थे। आपने सं० १६९८ में 'जंबूचौपइ' नामक काव्य की रचना सिवान में की। इसकी भाषा का नाम कवि ने प्राकृत लिखा है किन्तु यह जनता की प्राकृत भाषा मरुगुर्जर ही है यथा :
'जस कीरति महियल घणी, रुपइ रतिनोकत,
प्राकृतभाषा बीनवु., सुणाज्यों तुम्यो एकन्त । रचनाकाल -पर्वत रासि रिपुचन्द्र इणपरि संख्या अह कहाया,
ओ संवच्छर जाणी लीजै चरण कमल लय लाया। इसका आदि और अन्त इस प्रकार है - १. जैन गुर्जर कविओ (प्राचीन संस्करण) भाग १ पृ० ५१३ । २. वही, (नवीन संस्करण) भाग २ पृ० १५९ और (प्राचीन संस्करण)
भाग १ पृ० ५१४ । ३. जैन गुर्जर कविओ (प्राचीन संस्करण) भाग ३ खंड १ पृ० १०५५.५६
और वही भाग १, पृ० ५६७ ।
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