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कमल शेखर - कमलसागर
श्री जिनवर सवि पयनमी, समरी सरसति माय,
रास रचूं रलियामणु वलि बंदी गुरुपाय । इसमें प्रद्युम्नचरित के साथ प्रसंगतः कृष्णचरित का भी उल्लेख हुआ है। इसका रचनाकाल देखिये
विधिपक्ष गछि धर्ममूर्ति सूरि, विजयवंत ते गुण भरपूरि, संवत सोल छवीसइ करी दूहा चुपइ हीयडइ धरी । कमलशेखर रहिया चउमासि, मांडलि नयर घणइ उल्हासि, काती सुदि नइ दिन त्रयोदसी, कीधी चुपइ मन उल्हसी।' वणारीस बेलराज तणा, सीस दोइ तेहना गुण घणा, श्री पुण्यलब्धि उवझायां ईस, वीजा लाभशेखर वणारीस तास सीस रची चुपइ, सुणियो भवीयां इकमन थइ
आपने अपनी दोनों रचनाओं में धर्ममूति सूरि का अत्यन्त श्रद्धा से स्मरण किया है और उनकी स्तुति में 'धर्ममूर्तिगुरुफागु' भी लिखा है। इसमें रचनाकाल नहीं है किन्तु यह १७वीं शती के पूर्वार्द्ध की रचना है। २३ कड़ी की इस लघुकृति में सूरि का खंभात में जन्म से लेकर उनके दीक्षा समारोह (अहमदाबाद) और तपस्या आदि तक का वर्णन किया गया है। इनके माता-पिता का नाम क्रमशः हासलदे और हंसराज था। इन्होंने गुण निधानसूरि से दीक्षा ली और धर्ममूर्ति नाम पड़ा । अन्तिम कड़ी यह है -
कमलशेषर कहइ वंदीइ वंदीइ गुरुना पाय,
जे नरनारी गावइ पावइ सुख संपाइं । २३३ कमलसागर–तपागच्छ के आचार्य विजयदान सूरि के शिष्य उपाध्याय हर्षसागर आपके गुरु थे । आपने सं० १६०६ में '३४ अतिशय स्तवन' नामक एक रचना ३६ कड़ी में लिखी है। इसका प्रारम्भिक छन्द यहाँ दिया जा रहा है । सुरना सुरना किधा जोय, उगणिस अतिसय
__जिनजीना तुम्हें सांभलो । १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ (प्राचीन संस्करण) पृ० ६५९-६१ तथा
भाग २ (द्वितीय संस्करण) पृ० ४३-४४ २. वही, पृ० ४४ ३. प्राचीन फागु संग्रह पृ० १३६ ।
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