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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास रचनाकाल-इदु रस विंदु लेसा कही, संवछर संख्या कही, श्री गुरुचरण हइ धरी मनिधरी, भगति राग
श्री मंधिर तणो । गुरुपरम्परा-तपगछनायक मुगतिदायक सुखदायक श्रीविजयदान
सूरीसरो, उवझाय मुनिवर हर्षसागर तास गच्छइ दिनकरो। सीस कहइ वंदन ताहरु श्री कमलसागर सोह मे, तुझ चरणे मुझ मनि अतिहि लीणो जिम भमर
मालति मोह ।' कमलसोमगणि -आप खरतरगच्छीय धर्मसुन्दरगणि के शिष्य थे। आपने सं० १६२० में 'वारव्रतरास' नामक २० कड़ी की रचना की। देसाई ने इसका रचना काल सं० १६२० दिया है किन्तु अगरचंद नाहटा सं० १६२१ बताते हैं। इन्होंने 'लकाखंडन-प्रतिमामंडनरास' नामक एक साम्प्रदायिक खंडन-मंडनात्मक रचना पतेपुर, सिंध में लिखा था। इसके अतिरिक्त इनके दो-तीन गीत भी प्राप्त हैं। रास की अन्तिम पंक्तियों में कमलसोम का नाम न होने से यह निश्चित नहीं हो पाता कि वस्तुतः वे ही इसके लेखक थे, यथा
खरतरगछि रे श्री जिनचंद सूरीसरु, तसु राजइ रे धर्मसुदर गुरु सुखकरु । तसु उपदेसइ वारहव्रत विधि संग्रहइ,
मनरंगइ रे विमला मनवंछित लहइ । इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ इस प्रकार है---
"पणमिवि वीर जिणिंद चंद वलि गोयम गणहर, देसविरति वय आदरं अ समकितस्यु सुखकर । देवबुद्धि अरिहंत देवगुरु साधु सुधर्म,
हरिहरदेव कुतित्थि न्हाण न करु अ मम्म ।" ३ १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ६७३ (प्राचीन संस्करण) भाग २ पृ० २६
२७ (नवीन संस्करण) २. अगरचन्द नाहटा–परम्परा पृ० ७४ और जैन गुर्जर कविओ भाग २
(नवीन संस्करण) पृ० ११७। ३. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ खंड २ (प्राचीन संस्करण) पृ० १५०९ ।
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