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कनकसुन्दर I - कनकसोम
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उपलब्ध हैं। अतः अब कोई शंका इस ग्रन्थ के बारे में नहीं रही कि इसके कर्ता द्वितीय कनकसुन्दर ही हैं।' श्री अगर चन्द नाहटा ने इसी तथ्य की अपने लेख में पुष्टि की है। २ । __ कनकसोम --श्री मो० द० देसाई ने इन्हें खरतरगच्छीय साधुकीर्ति का शिष्य बताया था। किन्तु श्री अगर चन्द नाहटा ने इन्हें अमरमाणिक्य का शिष्य और साधकीर्ति का गुरुभाई बताया। श्री नाहटा का विचार ही उचित है क्योंकि साधुकीर्ति और कनकसोम दोनों ही अमरमाणिक्य के शिष्य थे । लेकिन देसाईजी के संशोधन के आधार पर इन्हें अमरमाणिक्य का शिष्य बताया गया है। आपने अनेक रचनायें की हैं उनमें 'जइतपद बेलि' ( सं० १६२५ आगरा ), जिनपालित जिनरक्षितरास (सं० १६३२ नागौर), आषाढ़ भूतिधमाल (सं० १६३८ खंभात), हरिकेशी संधि (सं० १६४० वैराठ), गुणठांणाविवरण चौपई (१६२१ आगरा), आर्द्रकुमार धमाल (सं.१६४४ अमरसर), मंगलकलश रास ( सं० १६४९ मुलतान ), थावच्चा सुकोशल चरित्र (सं० १६५५ नागौर), हरिबल संधि, नेमिफाग, जिनचंदसूरि गीत सं० १६२८, नगरकोट आदिनाथ स्तवन सं० १६३४ और अन्य गीत तथा स्तवन आदि प्राप्त हैं । आप अच्छे गद्य-लेखक भी थे। आपने 'शाश्वत जिनस्तव बालावबोध और कल्पसूत्र बालावबोध लिखा है। आपकी सर्वप्रथम गद्य रचना जिनवल्लभसूरि कृत पाँच स्तवन की अवचूरी है जिसकी प्रति सं० १६१५ की लिखी हुई प्राप्त है। इस तरह सं० १६१५ से १६५५ तक इनका रचनाकाल माना जा सकता है । आगे कुछ रचनाओं का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है।
रचनापरिचय - १४ गुणढाणा विवरण चौपई(९० कड़ी सं० १६३१ आसो शु० १०) आदि —पंच परमिठ सिद्धं नमिऊण तहां गुरु परमतत्वं,
चउदस गुणठाणाणं सरुवं मणमोसुहं वुच्छं । १. वही (प्राचीन संस्करण) भाग १ पृ. ५८३-८४ । २. परम्परा पृ० ९१ । ३. जैन गुर्जर कविओ, भाग ३ खंड १ पृ० ७४३ । ४. परभरा पृ० ७३ । ५. जैन गुर्जर कविओ (द्वितीय संस्करण) भाग २ पृ० १४७ । ६. परम्परा पृ० ७३
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