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कनकसुन्दर I
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आपकी दो गद्य रचनाओं का निश्चित पता है-दशवकालिकसूत्रबालावबोध (सं० १६६६), और ज्ञाताधर्मसूत्र बालावबोधि अथवा स्तवक । दशवैकालिकसूत्रबालावबोध में अहमदशाह के प्रति बोधकर्ता रत्नसिंह सूरि का उल्लेख है। इनके साथ देवरत्न, जयरत्न, विद्यारत्न की गुरुपरम्परा दी गई है जिसका ऐतिहासिक महत्व है। ज्ञाताधर्मकथाबालावबोध सं० १७०३ के पूर्व ही लिखा गया था अतः ये सभी रचनायें वि० १७वीं शताब्दी की ही हैं। इसके अन्त की पंक्तियाँ उनके गद्य के नमूने के रूप में आगे दी जा रही हैं ----
'श्री महावीरइ धर्मनी आदिना करणहार, तीर्थंकर पोतइ प्रतिबोध पाम्या पुरुष मांहि उत्तम पुरुष मांहि सीह समान पुरुष मांहि वरप्रधान श्वेत कमल समान, पुरुष मांहि गंधहस्ती समान तेणइ
भगवंतइ धर्मकथानु बीजु श्रुतस्कंध प्ररुपिउ । दशे वर्गे करीनि ज्ञाताधर्मकथांग संपूर्ण ।" यह प्रति सं० १७०३ चैत्र वदि ७ गुरुवार को लिखी गई थी। इससे रचना अवश्य पूर्व रची गयी होगी।
इन कृतियों के आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि कनकसुन्दर गणि विक्रमीय १७वीं शती के अच्छे पद्य और गद्य के लेखक थे । आप उत्तम कोटि के सन्त और उपदेशक तो थे ही, साथ ही उच्च कोटि के साहित्यकार भी थे। आपने नाना देशियो और ढालों में अनेक कथाओं को आधार बनाकर सरस साहित्यिक कृतियाँ मरुगुर्जर भाषा में प्रस्तुत की। आपकी भाषा के संबंध में यह पंक्ति दर्शनीय है। देवदत्त रास में कवि कहता है--
"आगई ओ पणि रास ज हतु, मारुनी भाषा बोलतु
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रहस्य तेहनूं हीयडइ धरी गूजरी भाषा चउपइ करी।"२ अर्थात् यह रास पहले से मरुभाषा में था कवि ने उसके मर्म को ग्रहण कर गुर्जर भाषा में लिखा है। इसलिए यह गुर्जर प्रधान मरुगुर्जर है। दूसरी बात यह कि इस समय तक आते-आते रास और चौपई का भेद मिट सा गया था। कवि चौपाई छंद का प्रयोग करता था तो वह रचना चौपई कही जाती थी और उसे रास भी कहते थे। १, जैन गुर्जर कविओ, भाग ३ पृ० ३७३-७४ । २. वही पृ० १५
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