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मरु-गुर्जर जैन साहित्म का बृहद् इतिहास सोल संवत सतसठइ मास वैशाषइ वली
वदि वारसइं रास पूरण हुइ शुभ मननी रली। रूपसेन रास-९९३ कड़ी की विस्तृत रचना है। यह सं० १६.३ में सांचौर या सत्यपुर में लिखी गई।
देवदत्त रास--(४१२ कड़ी) इस रास की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत कर रहा हूँ जिससे रास के विषय-वस्तु पर प्रकाश पड़ता है।
कुंथ चरित्र माहि एक बात, साह पुत्र बोलिउं अवदात । नवरस विबुध बखाणइ धर्म, कौतकादिक छइ बहु मर्म ।
प्रथम रस शृङ्गार उदार, ठामिठामि भाख्यउ छिसार । इसमें कुंथचरित्र और नवरस, विशेषतया उदार शृङ्गार रस का स्थान-स्थान पर अच्छा वर्णन है। आगे लीलावती नगरी के वर्णन से कथा का प्रारम्भ किया गया है। अन्त में शान्तरस का वर्णन है जो अन्तिम पंक्तियों से स्पष्ट है--
"ओ कौतुक धुरि कीधां घणां, सुखकर कामी जनमन तणां । वैराग्य रस छेहडइ आणीउ, सूधउ जनमत जाणीउ । जपवो सहू जिननूं नाम, जिमजीव पामइ वंछित काम, मंगलीक दुइ जिननइ नांम, वंछित लहइ ठामोठामि ।'
प्रारम्भ में काश्मीर मुखमंडनि माँ सरस्वती की वन्दना है और अन्त में गुरु परम्परा दी गई है।
जिनपालितसञ्झाय (७७ कड़ी) इसका आदि-अन्त प्रस्तुत हैआदि-विमल विहंगम वाहिनी रे, दो वाणी सुविसाल,
विरत तणा फल गायसु, श्री जिनवाणी रसालो रे, भवियण सांभलो। अविरत दूरि निवारो रे, दोहिल विषय विकारो रे
भवियण..।" अंत-ज्ञातकथा इम सांभली हरषि परणह बारो रे,
जिनवाणी सूणी सद्दवहि तस घरि दुइ सुखकारो रे । कनक सुन्दर उवझाया बोलिइं, जे भणि भावी भोली रे, मुगति तेहनी राखि खोली, मलसि नवनिध ढोलि रे ।
विषय न रात्रि ते डाहा ७७।' १. जैन गुर्जर कविओ (नवीन संस्करण) भाग ३ पृ० १०-१६ ।
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