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________________ ६८ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास 'पद पंकज सेवइ अहनिसइ इन्द्रादिक नर देव, मोहतिमिरहर दिवसकर, सारइ त्रिभुवन सेव ।१।' अंत-जग गुरु वचनइ शिवसुहकरणइ भवभवि थाज्यों दशधर्मशरणइ, सोलह सई चउसठ वरसइ मास असाढ़इ सुदि सुभदिवसइ । वादी गज केसरीय समान जग जस महकइ जास प्रधान, कनकसोम वाचक वरसीसइ, कनकप्रभ कहिचित्त जगीसइ ।८७॥ अन्तिम कड़ी में कवि ने स्पष्ट अपना नाम कनकप्रभ दिया है। इस गीत में यतियों के लिए निर्धारित दश धर्मों का उपदेश सरल मरुगुर्जर भाषा में दिया गया है। कनकसुन्दर--१. आप बड़तपगच्छीय देवरत्न सरि के प्रशिष्य एवं श्री विद्यारत्न के शिष्य थे। आपने सं० १६६३ में कर्पूरमंजरी रास लिखा। इससे कुछ पूर्व ही आपने 'गुणधर्म कनकवती प्रबन्ध' की रचना की थी। सं० १६६७ वैशाख वदी १२ को आपने 'सगाल साह रास' पूर्ण किया । देवदत्तरास, रूपसेनरास (सं० १६७३ सांचौर) जिनपालित सञ्झाय (७७ कड़ी) के अतिरिक्त कुछ गद्य रचनायें भी आपकी उपलब्ध हैं जिससे प्रकट होता है कि ये पद्य के साथ ही गद्य के भी कुशल लेखक थे। गद्य रचनाओं में ज्ञाताधर्मसूत्र बालावबोध और दशवैकालिक सूत्र बालावबोध उल्लेखनीय हैं। इनकी रचनाओं का संक्षिप्त परिचय और उद्धरण आगे प्रस्तुत है__कर्पूरमंजरी रास - ४ खण्डों में ७३२ कड़ी की वृहद् रचना सं० १६६२ वरजाजुली में लिखी गई। इसमें सिद्धराज जयसिंह का वर्णन होने के कारण इसका ऐतिहासिक महत्व है। अतः सम्बद्ध पंक्तियाँ आगे प्रस्तुत हैं-- 'गुजराती गुणवंतो अपार, अवर देश नहि को सुविचार, तस मंजन पाटण नरसिंधु अणहलवाडु धर्मनु बंध । तेणि नगर जयसंघ दे भूप सोलंकी विसई अति रूप, दांनि मांनि अलवेसर अह, मागण प्रतई न आपइच्छेह । तदाकालि हेमचंद्र सूरीस भुवि मांहि तस बड़ी जगीस, तस वातां निसुणी एकदा, रज्यु रा पूछइ विधि जदा । कह गुरु पुत्र हुइ किम कुले, ते भाइव ऊषध निर्मले, गुरु कहि श्री जिनधर्म प्रसादि, चिंतित काज हुइ गुण आदि । XX Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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