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कनककुशल
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भ्रम्यौ संसार अनंत न तुम भेद लह्यो जी, तुम स्यौ नेह निवारि परस्यों नेह कीयो जी। पडता नरक मझारि अब उधारि करो जी, तुम स्यो प्रेम करेरा ते संसार तिरो जी। कनककीरति करि भाव श्री जिनभगति रुचे जी,
पढ़ सुन नर नारि सुरगा सुष लहो जी। वाचक कनककीर्ति की भाषा में कहीं-कहीं गुजराती भाषा का प्रयोग अधिक मिलता है किन्तु वे राजस्थानी और खरतरगच्छीय साधु थे; अतः इनकी भाषा मरुगुर्जर ही है। भाषा प्रसाद गण सम्पन्न है। भाव सर्वत्र प्रभु के प्रति अनन्य प्रेम से ओतप्रोत हैं। यह कवि हिन्दी जैन भक्ति काव्य का उत्तम प्रतिनिधि है।
कनककुशल-आप विजयसेनसूरि के शिष्य थे। आपने सौभाग्यपंचमी के माहात्म्य पर संस्कृत में 'वरदत्तगुणमंजरीकथा' सं० १६५५ में लिखी। इन्होंने शोभन मुनि कृत स्तुतियों की संस्कृत टीका भी लिखी थी। आप संस्कृत के विद्वान् थे किन्तु मरुगुर्जर (हिन्दी) में इनकी किसी रचना की सूचना नहीं मिल पाई है अतः आपके सम्बन्ध में विशेष विवरण की अपेक्षा नहीं है । देसाई ने 'हरिश्चन्द्र राजानो रास' का उल्लेख इनके नाम से किया था किन्तु बाद में बताया कि उक्त रास कनकसुन्दर की रचना है।'
कनकप्रभ -खरतरगच्छ के विद्वान् मुनि कनकसोम आपके गुरु थे । इनके गुरु कनकसोम ही नहीं बल्कि इनके गुरुभाई लक्ष्मीप्रभ और रंगकुशल भी अच्छे कृतिकार थे।२ कनकप्रभ ने सं० १६६४ आषाढ़ शुक्ल पक्ष में 'दशविध यतिधर्म गीत' की रचना ८७ कड़ी में की। श्री मो० द० देसाई ने इस रचना का नाम 'धर्मगीत' लिखा है और इसे नाहटावंशीय कनकसोम के शिष्य लक्ष्मीप्रभ की रचना बताया है। वस्तुतः यह कनकसोम के शिष्य कनकप्रभ की रचना है। इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ उदाहरणार्थ आगे दी जा रही है१. जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० ५८३ । २. अगरचन्द नाहटा-परम्परा पृ० ७३ । ३. जैन गुर्जर कविओ, भाग ३ (नवीन संस्करण) पृ० ९३ भाग ३ खंड १
पृ० ९७७ प्राचीन संस्करण ।
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