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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास रचनाकाल-संवत् इसरनयन निधान सुरस ससि वैशाख मास,
शुदि तेरसि कीधी मे चउपइ, सुणतां लीलविलास । इसमें भी सुधर्मा स्वामी एवं अभयदेव से गुरु परम्परा गिनाते हुए कवि ने जिनचन्द्रसूरि और अकबर-जहाँगीर के सम्बन्ध की चर्चा की है। इसकी अन्तिम पंक्तियाँ देखिए ----
ओ संबंध कह्यों जिम सांभल्यो, गुरुमुख मति अनुसार
शील तणां गुण गावण मनरुली, कनककीरति सुखकार । भरतचक्री ५९ पृष्ठ की प्रकाशित रचना है।'
'मेघकुमार गीत' में ४६ पद्य हैं। यह मेघकुमार की गीतबद्ध स्तुति है। 'जिनराज स्तुति' और 'विनंती' भगवान जिनेन्द्र की भक्ति के गीत और स्तवन हैं। 'विनंती' का प्रारम्म 'वंदू श्री जिनराई' से हुआ है।
श्रीपाल स्तुति-जैन कवि न केवल भगवान जिनेन्द्र अपितु श्रीपाल जैसे जिन भक्तों की भी स्तुति करते हैं जैसे वैष्णव राम के साथ हनुमान जी की पूजा करते हैं। यह भक्त की भक्ति है।
पद-इनके पदों का संग्रह दिगम्बर जैन मंदिर बड़ौत में सुरक्षित है। एक पद में कवि ने जिननाम स्मरण का माहात्म्य बताते हुए लिखा है--
कनककीरति गुण गावै रे भाई, अरिहंत नांव हिय धरौ। अब लीयो जाय तो लीज्यो रे भाई, जिन को नांव सदा भलो।
दूसरे पद में भक्त भगवान को 'त्वमेव माताश्चपिता त्वमेव' की शैली में अपना सर्वस्व मानकर लिखता है
"तुम माता तुम तात तुमही परम धणी जी, तुम जग संचा देव तुम सम और नहीं जी। तुम प्रभु दीनदयालु मुझ दुख दूरि करो जी, लीजै मोहि उबारि मै तुमरो शरण गही जी।
कर्मघंटावली में कवि ने बताया है कि अपने आराध्य प्रभु में एकनिष्ठ प्रेम होने पर जीव कर्मबन्धन से मुक्त होकर परमगति प्राप्त करता है१. जैन गुर्जर कविओ (प्रथम संस्करण) पृ० १०५६-५८ । २. डा० प्रेमसागर जैन-हिन्दी जैन भक्तिकाव्य और कवि पृ० १७८ ।
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