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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास आदि-वेणा वंश बजावती, धरती पुस्तग हाथि;
ब्रह्मसुता हंसि चढ़ी बहु देवी तुम साथ । रचनाकाल-दिग आगलि लइमिंडु धरो कला सोच ते पाछल करो,
कवण संवच्छर थांइ वलि त्यारइ रास को मनरली । कवि ने इसी बुझौवल पद्धति पर गुर्जर देश, खंभात नगर, संघवी सांगण का भी विवरण दिया है। हितशिक्षारास (कड़ी १८६२, सं० १६८२ माधव शुक्ल ५, गुरुवार,
खंभात) इस रास का सारांश शेठ कुंवर जी आनंद जी ने 'जैनधर्म प्रकाश' में क्रमशः छापा था जो बाद में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ। इस रास में नयसुन्दर, समयसुन्दर और विनयप्रभ आदि पूर्व कवियों की लोकप्रिय ढालों का प्रयोग किया गया है तथा कवि ने इसे अनेक सुभाषितों से अलंकृत किया है। इसका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है--
इसमें सरस्वती की वंदना १५-१६ छंदों तक की गई है। आदि और अन्त के पद्य क्रमशः दिए जा रहे हैंकासमीर मुख मंडणी, भगवती ब्रह्म सुताय,
तुं त्रिपुरा तु भारती, तुं कविजन नीमाय । तुं सरसति तुं शारदा, तुं ब्रह्माणी सार,
विदुषी माता तुं कही तुझ गुण नो नहिपार ।'
गुण ताहरा नवि लाधे पार, तुं करजे कवि जन नी सार
आज हुओ हैडे उल्लास, नीपाऊं हित शिक्षा रास । रचनाकाल--युगल सिद्धि अने ऋतु चंद जुओ संवत्सर धरी आनंद,
माधव मास उज्वल पंचमी, गुरुवारे मति होये समी। मे गायो हित शिक्षारास, ब्रह्मसुतामे पूरी आस,
श्री गुरुनामे अति आनंद, वंदू विजयसेन सूरींद ।' इसका प्रकाशन भीमसिंह माणक ने किया है।
जीवतस्वामीरास--(२२३ कड़ी सं० १६८२ वैशाख कृष्ण ११, गुरुवार, खंभात)। १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ (द्वितीय संस्करण) पृ० २३-७९ ।
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