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मरु- गुर्जर जैन - साहित्य का बृहद् इतिहास
अन्त - वीरवचन हइआ मांहि धरता मुझ मनि अति आनंदो जी, जीवविचार को मिं विवरी फलीउ सुरतरुकंद जी । भगतां गुणतां सुणतां संपदि उच्छव अंगण्ये आज जी, जीव विचार सुणी जिउं राखइ तेहनि शिवपुर राज जी । रचनाकाल - संवत सोल छयोत्येर्या वरषे, आसो पूनिमी सार जी, खंभनयर मांहि नीपाउ, रचीओ जीवविचार जी । नवतत्वरास ( ८११ कड़ी सं० १६७६, दीपावली, कार्तिक कृष्ण,रविवार, खंभात )
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आदि - - आदि धर्म जिणइ उधर्यो नाभिराय सुत्त जेह, मरुदेवी पूत ज भलो सही संभारु तेह, ऋषभ ज नाम जग रुडउ कनकवर्ण जस काय, पूर्व लाख चउरासीओ आदीश्वर नु आय । गुरुपरंपरान्तर्गत हीरजी सूरि, विजयसेन सूरि और विजयानन्द सूरि की वंदना की गई है ।
अंत - रास नवतत्वनो अह सुहामणो नगर त्रंबावती मांहि कीधो, ' शास्त्र बहु सांभली अरथ लीधावली,
वचन जिह्वातणो फलही लीधो ।"
भरत वाहुबलि (भरतेश्वर) रास (१११६ कड़ी, ८४ ढाल, सं० १६७८ पौष शुक्ल १०, गुरुवार)
आदि-सार वचन द्यो सरस्वती तुं छं ब्रह्मसुताय,
तुं मुझ मुख आवीरमे जिममति निर्मल थाय । तुं भगवती तुं भारती ताहरा नाम अनेक, हंसगामिनी शारदा तुजमा घणो विवेक ।
रचनाकाल - संवत सोल अठ्योतरो आखु प्रगट्यो पोस ज मास, दशमि तणो दाहडो अति उज्वल, पहोती मन तणी आसरे । गुरुवारे मे रास निपायो अश्विनी तिहां नक्षत्र,
संघवी ऋषभदास ओम भाषे भरत नु नाम पवित्र रे ।"*
१. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ (द्वितीय संस्करण) पृ० २३-७९. २ . वही
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