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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अन्तिम कड़ी श्री जिनतिलक सूरिंद गुरु, पभणइ सीसज एम,
__ आणंद उदय रिधि वृद्धि सदा श्री संघ हुज्यो खेम ।३०७।' यह पूजा विषयक रचना है। इसमें विद्याविलास के चरित्र के माध्यम से पूजा का माहात्म्य बताया गया है। इसकी भाषा प्रसाद गुण सम्पन्न मरुगुर्जर है।
ईश्वर बारोट -(पीताम्बर शिष्य)--आप सम्भवतः जैनेतर कवि हैं। आपकी 'हरिरस' नामक कृति का रचनाकाल ज्ञात नहीं है, किन्तु श्री मो० द० देसाई ने इन्हें १७वीं शताब्दी का कवि माना है। 'हरिरस' की अनेक प्रतियाँ विभिन्न जैन ज्ञान भांडारों में उपलब्ध हैं। आप भक्त कवि प्रतीत होते हैं। इस कृति का प्रारम्भ निम्नलिखित पंक्तियों से हुआ है :
लागु हुं पहिलो लुलै पीतांबर गुरु पाय;
भेद महारस भागवत, पाम्यो जास पसाय जाड टलै मनक्रम चलै, निरमल थाओ तेह,
भाग होवे तो भागवत सांभलज्यो श्रवणेह । अन्त–वंदै इमि ईसर बारोबार, प्रभू मति टालौ मुझ पियार।
भणै इम ईसरदास भगत, मया करि दीनानाथ मुगत । इसका एक कवित्त नीचे दिया जा रहा है जिसमें कवि ने अलखनिरंजन का स्मरण किया है -
अलष तज आदेश मातविण तात निपन्नह, घात जात थर विणा आप आपकी उपन्नह । एह उभै सिव सकति तूं अलष निरंजण एक हूअ । घण घणा रूप भांजण धडण, अलष पुरुष आदेश तुअ । १८३ । २
श्री देसाई ने अपनी प्रति से इसका पाठान्तर भी दिया है । उस प्रति की अन्तिम पंक्ति देखिये
"कवि ईसर हररस कह्यौ श्लोक तीन सौ साठ,
महा दुष्ट पावत जुगत नित करत जे पाठ ।" इसकी १८वीं शताब्दी की लिखित अनेक प्रतियाँ उपलब्ध हैं। १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ खंड १ पृ० ८८४-८८५ २. वही भाग ३, खंड २ पृ० २१५०-५१
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