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परिशिष्ट
जैन कवियों द्वारा रचित काव्यरचनाओं का परिचय तब तक अधूरा रहेगा जब तक 'ढाल' या देशी का परिचय न दिया जाय क्योंकि प्रायः समस्त जैन काव्य साहित्य ढालों या देसियों में सम्बद्ध है। बलण, चाल, देशी आदि ढाल के ही अलग-अलग नाम हैं। ढाल उन लोकप्रिय लोकगीतों के राग या लय तथा तर्ज पर ढाले गये हैं जो अत्यधिक जनप्रिय रहे हैं। जैन कवि अपनी काव्य रचनाओं को उन्हीं की चाल पर लयबद्ध करके उन्हें गेय, मधुर तथा लोकप्रिय बनाने का यत्न करते हैं।
कनकसुन्दर ने सं० १६९७ में रचित हरिदचंद्र रास के अन्त में लिखा है
राग छत्रीसे जूजुआ, नवि नवि ढाल रसाल, कंठ बिना शोभे नहीं, ज्यु नाटक विणताल । ढाल चतुर ! म चूकजो, कहे जो सघला भाव,
राग सहित अलाप जो, प्रबन्ध पुण्य प्रभाव । जैन कवियों ने कभी-कभी एक ही रचना में बीसों ढालों का प्रयोग किया है : कुछ लोगों ने तो अपनी रचनाओं का नामकरण ही ढालों के आधार चौढालिया, ढालसागर आदि रख छोड़ा है। श्री मोहनलाल दलीचंद देसाई ने अपनी रचना जैन गुर्जर कविओ में २३२८ देशी या ढालों की एक अति महत्वपूर्ण अनुक्रमणिका दी है। आवश्यकता है कि इन लोकधुनों की सुरक्षा की जाय अन्यथा फिल्मी धुनों की तेज आंधी में इनके लुप्त हो जाने का खतरा उपस्थित हो गया है।
इन ढालों में कुछ इतनी अधिक लोक प्रसिद्ध हैं कि उनका कई कवियों ने कई रचनाओं में उपयोग किया है जैसे ऋषभदास कृत कुमारपाल रास (सं० १६७०) तथा हीरविजय रास (सं० १६८५) में में प्रयुक्त ढाल 'अति दुख देखी कामिनी' कई स्थानों पर प्रयुक्त हुई
है। यह केदाराराग में आबद्ध हैं। इसका प्रयोग कवि नयसुन्दर ने भी .. अपनी रचना ‘सुरसुन्दरी रास' में नवीं ढाल के रूप में किया है ।
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