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________________ '६२२ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहन् इतिहास शुद्ध, स्वस्थ और लोकोपयोगी बनाने का प्रयत्न किया है। उनकी रचनाओं के माध्यम से भारतीय आर्य भाषाओं के क्रमविकास का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन सुमम और संभव हुआ है। उनके शास्त्रभण्डारों में सुरक्षित पांडुलिपियाँ भाषायी घालमेल से अछूती रही और लुप्त होने से बची रहीं। हमें इस दृष्टि से जैन साहित्यकारों और शास्त्रभण्डारों का कृतज्ञ होना चाहिए कि उन्होंने देश की प्राचीन भाषा सम्पदा और साहित्य को यत्नपूर्वक रक्षा की है और अब उसे वृहत्तर समाज को अध्ययनार्थ क्रमशः अर्पित भी करने लगे हैं। यह तो पहले ही विस्तारपूर्वक कहा जा चुका है कि इन लोगों ने प्रायः पुरानी हिन्दी या मरुगुर्जर में रचनायें की हैं। हिन्दी, गुजराती और राजस्थानी का विकास शौरसेनी के नागर अपभ्रंश से हुआ है।' एक ही उद्गम होने के कारण तीनों भाषाओं का विकास १३वीं से १६वीं शताब्दी (विक्रमीय) तक इतना मिला-जूला है कि उन्हें एक -दूसरे से अलग करना कठिन है । इसी मिली-जुली भाषा को पुरानी हिन्दी, जूनी गुजराती या मरुगुर्जर आदि नाम दिए गये हैं। प्रथम खण्ड में इस पर विस्तार से लिखा जा चुका है। यहाँ प्रसंगतः इतना ही संकेत करना है कि १७वीं शताब्दी में भी भाषा का वही 'मिलाजुला रूप जैन साहित्यिक कृतियों में दिखाई पड़ता है यद्यपि इस समय तक हिन्दी, गुजराती का अलग विकास भी होने लगा था। जैन लेखकों ने भाषा-स्तर पर समन्वय का आदर्श प्रस्तुत किया है। मेरी तेरी भाषा के आधार पर आज अलग प्रदेशों की मांग करने वालों को इनसे कुछ उदारता की शिक्षा लेनी चाहिए। गुजराती के प्रसिद्ध वैयाकरण श्रीकमलाशंकर प्राणशंकर त्रिवेदी ने कहा है कि गुजराती हिन्दी का प्रान्तिक रूप है। चालुक्य राजदूत उसे काठियावाड़ ले गये जहाँ वह हिन्दी की दूसरी बोलियों से अलग पड़ जाने से धीरे-धीरे स्वतन्त्र भाषा बन गई । अर्थात् गुजराती का विकास और हिन्दी का विकास एक जैसा है और एक ही मूलस्थान से है। राजनीतिक या अन्य जो भी कारण रह हों जिनके चलते हिन्दी, गुजराती और राजस्थानी अलग हो गई पर जैन कवियों ने यह अलगाव आधु'निक काल से पूर्व कभी स्वीकार नहीं किया और वे मरुगुर्जर या १. डा० धीरेन्द्र वर्मा-हिन्दी भाषा का इतिहास २. श्री क० प्रा० त्रिवेदी-गुजराती भाषानु वृहद् व्याकरण पृ० २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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